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________________ राधनपुर श्री संघ के संगठन की एक झलक अनुचित व्यवहार का सम्मिलित रूप से विरोध करना अथवा उसके लिये रोष प्रकट करना प्रजा का कर्तव्य है। और होना चाहिये | आपके बड़ों ने हमारे धर्म स्थानों का पूरा २ संरक्षण किया और हमारे अहिंसा प्रधान धर्म को अधिक से अधिक प्रोत्साहन दिया । आपके पूर्वजों की ओर से दिये गये फर्मान के कारण यहां के तालाब से कोई भी व्यक्ति मछली नहीं पकड़ सकता, एक व्यक्ति ने इसके विरुद्ध काम किया - अर्थात् मछली पकड़ी, उसके फलस्वरूप उसे पकड़कर कई दिनों तक पिंजरापोल में कैद में रक्खा गया । सो, हजूर हम जो कुछ करते हैं उसमें धर्म को सन्मुख रखते हुए आप और आपके पूर्वजों के सम्मान और प्रेम को किसी प्रकार की बाधा न पहुँचे, इस भावना से करते हैं । श्री संखेश्वर तीर्थ पर बहुत प्राचीन समय से मेला भरता आया है, आजतक राज्य की तरफ से किसी यात्री पर किसी प्रकार का कर नहीं लगाया गया बल्कि यात्रियों की सुविधा के लिये राज्य की ओर से सब प्रकार का उचित प्रबन्ध रहता था । परन्तु अब आपके समय में वहां यात्री कर की घोषणा की जावे यह उचित है कि नहीं इसका विचार हजूर स्वयं कर सकते हैं । हम लोगों को यह अनुचित प्रतीत हुआ इसलिये हमने यात्रा बन्द रखनी ही उचित समझी और उसके लिये मुझे अपने शहर और आसपास के ग्रामों में सूचना देनी पड़ी. राज्य की ओर से लगाये जानेवाला यह यात्री - कर उचित नहीं ऐसी मेरी सम्मति है, आगे आप मालिक हैं । नवाब साहब - तो क्या कभी जरूरत पड़े तो आप अपने संघ की हमें भी मदद दिला सकते हैं ? -- ३३१ श्रीचन्द - बड़ी खुशी से, कोई भी धार्मिक कार्य हो उसमें मैं और मेरा संघ हर प्रकार से सहयोग देने को तैयार हैं। किसी भी दीन, दुःखी और अनाथ की सहायता करना हमारा परम धर्म है। आप इ प्रकार के धार्मिक कार्यों में जब चाहो हमारा सहयोग प्राप्त कर सकते हैं । इतना सुनने के बाद नवाब साहब ने यात्री कर का विचार त्याग दिया और सत्कार पूर्वक नगर सेठ को विदा करके जब आप रणवास में पधारे तो बेगम साहिबा ने कहा कि क्या अब आपकी नीयत खैरायत - [ दान का धन ] - खाने की होगई है ? लोग तो खैर यत करें - दान पुण्य करें और आप उसमें से हिस्सा मांगें ? यह कितनी लज्जा की बात है ? क्या खुदा ने आपको खैरायत करने के बदले खैरायत खाने को पैदा किया है ? आपको कुछ विचार करना चाहिये । बेगम साहिबा के इन शब्दों को सुनकर नवाब साहब बहुत लज्जित हुए और कहने लगे अब तो हमने उसे बन्द करा दिया है। यह राधनपुर के श्री संघ के पारस्परिक संघठन का सजीव उदाहरण है । इसके अतिरिक्त उन दिनों वहां १२ तिथि [ दूज, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस ] कोई श्रावक लीलोत्तरी-सब्जी नहीं खाता था । रात्रि भोजन का प्रायः सबको त्याग था, चौमासे के दिनों में कोई तेली तेल नहीं पीता था, श्रावक लोग गाड़ी में बैठकर किसी गांव में नहीं जाते थे । उस समय वहां पर यह कहावत प्रसिद्ध थी कि राधनपुर में जैन और दीन ये दो ही धर्म हैं तात्पर्य कि वहां अधिक वस्ती जैनों और मुसलमानों की ही थी । परन्तु दोनों में बड़ा प्रेम था, एक दूसरे को मन से सहायता देते थे । उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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