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छगन की दीक्षा का पूर्व इतिवृत्त
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बाजारों में होता हुआ मंडप में पहुँचा, जहां कि दीक्षा विधि सम्पादन के लिए व्यवस्था की गई थी। गुरुदेव, श्री विजयानन्दजी सूरि श्री आत्मारामजी महाराज भी अपने शिष्य परिवार के साथ मंडप में पधारे और छगनलाल को शास्त्रोक्त विधि विधान के साथ साधु धर्म में दीक्षित किया । साधु वेष से सुसज्जित छगनलाल के चरणों में झुके हुए मस्तक पर अपने बरद दक्षिण कर कमल से वासक्षेप डालते हुए आचार्य श्री ने फर्माया-यद्यपि साधुओं का विचार इसका रत्नविजय नाम रखने का है परन्तु मेरी इच्छा तो इसका नाम वल्लभ विजय रखने की है, इसी नाम से मुझे प्यार है और इस नाम तथा नाम वाले में मैं पंजाब की संरक्षता का सफल स्वप्न देख रहा हूँ इसलिए सबके समक्ष साधु वेष में उपस्थित हुश्रा यह छगन आज से वल्लभ विजय के नाम से सम्बोधित होगा, श्री हर्षविजय जी इसके दीक्षा गुरु होंगे और यह मेरी देखरेख में अपना भावी साधु जीवन व्यतीत करेगा।
आचार्य श्री के इतने फर्माने के बाद वहां पर उपस्थित हुई सारी जनता ने जयकारों के साथ पूरा २ स्वागत किया।
उत्सव की समाप्ति पर महाराजजी के पास आये हुए राधनपुर संघ के आगेवानों ने कहा कि महाराज, क्या कहें आप श्री के पुण्य प्रताप से आज का दीक्षा महोत्सव तो अपनी कक्षा का एक ही हुआ है, बड़े लोगों का कहना है कि राधनपुर में दीक्षा महोत्सव तो बहुत हुए हैं परन्तु ऐसी धूमधाम का महोत्सव तो इस नगर में गत पचास वर्षो से नहीं हो पाया। महाराज श्री ने फर्माया कि यह सब राधनपुर के श्री संघ के उत्साह और प्रेम का ही परिणाम है।
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