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________________ % 3D छगन की दीक्षा का पूर्व इतिवृत्त ३२१ महाराजजी के साथ जाकर पीछे आजाऊंगा। भला छगनलाल को यह बात कैसे मान्य होती । उसको तो पहल ही रंग चढ़ा हुआ था। श्री हर्षविजयजी के हंसमुख और प्रभावशाली चेहरे ने तो न जाने उसपर कसा जादू कासा असर किया; वह तो मनसे उन्हीं का हो चुका था और उसने अपने मनमें यह दृढ़ निश्चय करलिया था कि कुछ भी हो अपना दीक्षा गुरु तो इन्हीं को बनाऊंगा । वह मनमें सोचता है कि मैं तो इनके साथ जाना चाहता हूँ.-[मैं ने इनके चरणों में निवेदित होने का संकल्प जो करलिया है-] और भाई साहब मुझे घरमें रहने को कहते हैं, यह कैसी बात ? मैं भी आपके साथ ही जाना चाहता हूँ आप रोकेंगे तो मुझे बहुत दुःख होगा, छगनलाल ने बड़ी नम्रता से भाई को उत्तर दिया। अन्ततोगत्वा छगनलाल भी खीमचन्द भाई के साथ छाणी गया। हां उसने साथ में रहते हुए भी अपने मन की तीव्र वैराग्य भावना को भाई पर प्रगट ने नहीं दिया । ___ खीमचन्द भाई तो छाणी से वापिस लौट आये और छगनलाल ने अगले पड़ाव तक साथ जाने की किसी न किसी प्रकार भाई से अनुमति प्राप्त करली और महाराजजी के साथ हो लिया। मन बड़ा प्रसन्न था, मुनि महाराजों का सहवास प्राप्त होगा, और महाराज श्री से बात चीत करने का खुला अवसर मिलेगा। इस तरह महाराज श्री हर्षविजय तथा अन्य साधु मुनिराजों के सत्संग से वैराग्य का रंग उत्तरोत्तर गहरा होता गया और छगनलाल अब दीक्षा प्राप्त करने का अवसर ढूंढने लगा। भाई खीमचन्दजी तो उसे घर के कार्य व्यवहार में डालना चाहते थे। उन्होंने प्रेम से भय से आग्रह से हर तरह समझाया और कई प्रकार की रुकावटें भी डाली परन्तु छगनलाल के मनमें तो वैराग्य की भावना पत्थर की लकीर जैसी दृढ़ और अमिट हो चुकी थी। श्री हर्षविजयजी महाराज की हंसमुख प्रकृति, उनकी वाणी का लालित्य और अपरिमित विद्या बुद्धि ने युवक छगनलाल पर सचमुच जादू का सा प्रभाव किया और उसने उन्हें गुरु धारण करने की भावना को निश्चय का रूप दे दिया। अतः छाणी से आगे जाकर भी छगनलाल वापिस नहीं लौटा किन्तु साधुओं के साथ ही साथ अहमदाबाद तक चला आया। वहां प्रवेश के समय खीमचन्द भाई भी भागये । उन्होंने छगनलाल को भी वहीं देखा और उसका हाथ पकड़ वापिस बडौदे ले आये । वह बेचारा क्या करता, तब वह भागने का अवसर ढूंढने लगा, एक दिन अवसर मिलगया और वे गाड़ी में सवार होकर अहमदाबाद चला आया। उसे अाया देख सभी साधु प्रसन्न हुए और बालक छगनलाल के दृढ़ निश्चय ने उन्हें चकित भी कर दिया। दो दिन बाद खीमचन्द भाई भी वहां आ पहुंचे और अब के उन्होंने व्यवहार कुशलता दिखाते हुए एक चाल चली, महाराज श्री से बोले महाराज ! मैं इस बालक को अपके सुपुर्द करता हूँ , अभी यह बच्चा है, दीक्षा के योग्य नहीं है। और छगनलाल को बुलाकर कहा-देख ! महाराज श्री की आज्ञा में रहना और मन लगाकर विद्या अध्ययन करना। इतना कहकर महाराज श्री को वन्दना नमस्कार करके वहां से विदा हुए । इस समय छगनलाल की खुशी का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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