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________________ अध्याय ८२ पालीताणे का प्रवेश और उपद्रव शान्ति 19AX उन दिनों पालीताणे का रंग ढंग कुछ निराला ही था । एक मात्र यतियों का बोल बाला था, कोई श्रावक उनकी अनुमति के बगैर कुछ कर नहीं सकता था। किसी क्रियापात्र साधु को कोई पूछता तक नहीं था । इसलिए न तो कोई वहां आने वाले साधु का प्रवेश महोत्सव ही करता था और न कोई क्रियापात्र साधु वहां चातुर्मास ही कर पाता था, तात्पर्य कि यति लोगों का वहां इतना जोर था कि उनके सामने कोई गृहस्थ jai भी नहीं कर सकता था । तब समय के जानकार अहमदाबाद के नगर सेठ प्रेमाभाई हेमाभाई और सेठ दलपतभाई भग्गूभाई ने वहां की विकट परिस्थिति का विचार करते हुए महाराज श्री आनन्द विजयजी आत्मारामजी के प्रवेशोत्सव में यतियों की तरफ से कोई उपद्रव न हो और महाराज श्री का प्रवेश भी उनके व्यक्तित्व के अनुरूप ही हो ऐसी धारणा से पालीताणा दरबार को लिखा कि -- "हमारे गुरुदेव पंजाबी साधु मुनि श्री आनन्द विजयजी - आत्मारामजी महाराज अपने शिष्य परिवार के साथ पालीताणा पधार रहे हैं, उनका सामैया - प्रवेश महोत्सव बड़े समारोह के साथ उनकी योग्यतानुसार होना चाहिये, ऐसी हमारी हार्दिक इच्छा है । सो आप इसका उचित प्रबन्ध कराने की मेहरबानी करें। ताकि वहां के यतियों और उनके चेलेचांटों की तर्फ से किसी प्रकार का उपद्रव न होने पावे | हमारी इस नम्र सूचना पर आप साहिब अवश्य ध्यान देंगे ऐसी हमें पूर्ण आशा है"। जिस समय नगर सेठ की तरफ से पालीताणा दरबार को यह संदेश मिला तो उन्होंने उसी समय आनन्दजी कल्याणजी की पेढ़ी के उसवक्त के मुनीम श्री दुल्लभ भाई को बुलाया और कहा कि आपके सेठों का सन्देश आया है कि "हमारे गुरु पंजाबी साधु मुनि श्री आनन्दविजयजी - श्री श्रात्मारामजी महाराज पालीताणा में अपने शिष्य परिवार के साथ पधार रहे हैं ! उनका प्रवेश बड़े समारोह के साथ होवे ऐसी हमारी हार्दिक भावना है ।" सो इस कार्य को आप अपने हाथ में लो और जिस प्रकार की सहायता की आवश्यकता आपको होवे उसका राज्यकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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