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________________ साधूओं से परामर्श २६५ गुरु महाराज ने जवाब दिया कि तुम सब सेठ ही हो न ? भाई ! मैं तो अपने ठीक समय पर बिहार करूंगा, इतना कहकर चल पड़े। महाराज श्री के विहार कर जाने पर कई एक आदमी दौड़कर नगर सेठ के घर पहुंचे तो उस समय नगरसेठ तैयार होकर पीनस में बैठ गये थे और पीनस उठाने को थी। इतने में खबर देने वालों ने सेठजी से कहा कि सेठजी ! महाराजजी साहब ने विहार कर दिया उनको थोड़ा समय सुस्ताने को अर्ज किया, मगर जवाब में उन्होंने कहा कि मैं तो अपने नियत समय पर चल पडूंगा” इतना कहते ही वे नदी की तर्फ रवाना हो गये । यह सुन सेठजी ने कहा तो फिर अपने को यहां से सीधा नदी का ही रास्ता लेना चाहिये ताकि महाराज श्री के वहां पहुंचने तक अपने भी पहुँच जावें । इतना कहते ही पीनस उठाने वालों को नदी की ओर चलने का आदेश दिया और वे चल पड़े। इधर गुरुदेव नदी के पास पहुँचे उधर सेठजी की पीनस भी वहां आ पहुंची, पीनस से उतर कर सेठजी ने विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार की, उत्तर में गुरुमहाराज ने सप्रेम धर्मलाभ दिया । उस समय वहां पर उपस्थित कई एक मुख्य श्रावकों ने सेठजी से कहा कि इम लोगों ने आपके लिये गुरु महाराज को थोड़ी देर सुस्ताने की प्रार्थना करते हुए कहा था कि गुरुदेव ! अभी सेठजी नहीं आये उनके आने तक ठहरने की कृपा करें । तो आपकी ओर से उत्तर मिला कि "तुम सब सेठ ही हो न ? मैं तो अपने समय सर बिहार कर दूंगा। नगर सेठ मुस्कराते हुए-तो गुरु महाराज ने जो कुछ फर्माया वह ठीक ही तो है, आपके लिये तो सभी सेठ हैं । वीतरागदेव के चरणचिन्हों पर चलने वाले परम त्यागी महापुरुषों की दृष्टि में तो छोटे बड़े सभी समान होते हैं । और यदि व्यवहार से देखा जाय तब भी आपश्री का कथन यथार्थ है । जब कि मैंने आपसे बिहार का समय पूछा और आपने समय बतला दिया तब उस समय पर हाज़र होना यह मेरा फर्ज था न कि मेरे लिये आपको ठहरना । मैं यदि नियत समय पर नहीं पहुंचा तो इसमें भूल मेरी है मैं तो उलटा क्षमा का पात्र हूँ। गुरुदेव अपने नियत समय पर चल पड़े जोकि उन्हें चलना ही था । रागद्वेष से ऊंचे उठने वाले महापुरुषों का यही आदर्श है और होना चाहिये । यदि आप लोगों के कहने से गुरु महाराज, कृपा की दृष्टि से ठहर जाते तो आप लोगों में से ही ऐसा कहने वाले भी निकल पड़ते कि आखिर साधुओं को धनिकों का लिहाज करना ही पड़ता है । इसलिये गुरु महाराज ने जो कुछ किया वह उचित ही किया है । आप लोगों का ध्यान गुरु महाराज की निस्पृहता की ओर जाना चाहिये था जो कि साधुता की सच्ची कसौटी है जिस पर कि आप पूरे उतरे हैं । जैन समाज का यह अहोभाग्य है कि उसमें आप जैसे विद्या विनयसम्पन्न निस्पृही मुनिराज विवर रहे हैं । धनिकों की प्रतीक्षा धनलिप्सु किया करते हैं न कि धन के त्यागी भी। सच पूछो तो गुरु महाराज की इस निस्पृहता से मैं जितना प्रभावित हुआ हूँ उतना आपके रुकने पर शायद ही हो पाता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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