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नवयुग निर्माता
नहीं जाता। आपके स्वामीजी के सिद्धान्तों में सबसे अधिक उपहास्यजनक और घृणास्पद तो नियोग का सिद्धान्त है जिसमें उन्होंने एक स्त्री को ११ पति तक करने की आज्ञा 8 फर्माई है । और इस आज्ञा को वेदज्ञा कहकर वेदों को लांछित करने में भी कोई कसर बाकी नहीं रक्खी। मेरी दृष्टि में तो वेद - [ जिन्हें ईश्वरीय ज्ञान कहा व माना जाता है] ऐसे घृणित एवं निन्दनीय व्यभिचारप्राय व्यवहार की आज्ञा दें यह सम्भव नहीं लगता $ इसके सिवा स्मृतिकारों में मनु को सबसे अधिक प्रमाण माना है, जहां तक कि उपनिषदों में मनु के कथन को औषधि रूप + बतलाया है। वह मनु तो इस नियोग को पशुधर्म बतलाकर इसकी निन्दा करते हैं जबकि स्वामीजी इसे वेदाज्ञा या ईश्वराज्ञा बतला रहे हैं । तब इन दो में से किसके
$ स्वामीजी की भाष्य भूमिका का वह उक्त स्थल इस प्रकार है -
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" द्वेसृती अवं पितृणामहं देवानामुत मर्त्यानाम् [ यजुः १६-४७ ]
भाष्यम्-(द्वेसृती) अस्मिन् संसारे पापपुण्य फल भोगाय द्वौ मार्गोस्त। एकः पितृणां ज्ञानिनां देवानां विदुषां च द्वितीयः (मर्त्यानाम्)विद्या विज्ञानरहितानां मनुष्याणाम् । तयोरेकः पितृयानो द्वितीयो देवयानश्चेति । यत्र जीवो मातृपितृभ्यां देहं धृत्वा पापपुण्यफले सुखदुःखे पुनः पुनर्भुक्ते, अर्थात् पूर्वापर जन्मानि चधारयति सा पितृयानाख्या सृतिरस्ति । तथा यत्र मोक्षाख्यं पदं लब्ध्वा जन्ममरणाख्यात् संसाराद् विमुच्यते सा द्वितीया सृतिर्भवति । तत्र प्रथमायां सृतौ पुण्यसंचय कलं भुक्त्वा पुनर्जायते म्रियते च । द्वितीयायां च सृतौ पुनर्न जायते न म्रियते चेत्यहमेवं भूते द्वेस्ती (अश्रृणवं ) श्रुतवानस्मि । [ ऋग्वेदादि भा० भू० पृ० २६२ ]
- लेखक
$ हे स्त्री तूं नियोग में ग्यारह पति तक कर । अर्थात् एक तो उन में प्रथम विवाहित और दश पर्यन्त नियोग के पति कर । [ ऋ० ० भा० भू० पृ० २७४ ]
(१) मनुस्मृति में लिखा है कि "विवाह के मन्त्रों में कहीं पर भी नियोग का कथन नहीं किया गया और नाही विवाह विधि में विधवा के विवाह का उल्लेख है यथा
"नोद्वाहिके मंत्रेषु, नियोगः कीर्त्यतः क्वचित् । न विवाह विधावुक्तं विधवा वेदनं पुनः ॥ [ अ. लो. ६५ ]
व्याः
- " अर्यमणं नु देवं" इत्येवमादिषु विवाह प्रयोग जनकेषु मंत्रेषु क्वचिदपि शाखायां न नियोगः कथ्यते । नच विवाह विधायक शास्त्रेऽन्येन पुरुषेण सह पुनर्विवाह उक्तः । [ कुल्लूक भट्टः ]
+ "मनुर्यदवदत्तद्धि भेषजम्" [ छान्दोग्योपनिषद् ]
यं द्विजैर्हि विद्वद्भिः पशुधर्मो विगर्हितः । मनुष्याणामपि प्रोक्को वेने राज्यं प्रशासति ॥
इत्यादि के लिये देखो मनुस्मृति का यह स्थल । —लेखक
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[ अ. लो. ६६ ]
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