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नवयुग निर्माता
इस लिये अपना वर्तालाप वहीं तक सीमित रहना चाहिये, जहां तक सबके मनमें एक दूसरे के प्रति सद्भाव बना रहे।
जैसे कि पहले भी कहा गया है वेदान्त का यह सिद्धांत अपेक्षाकृत सत्य है, निरपेक्ष सत्य नहीं, श्रात्मा के अविनाशित्व और संसार की विनश्वरता को ध्यान में रखते हुए यदि ब्रह्म-चैतन्य स्वरूप विशुद्ध आत्मा को सत् और तद् विलक्षण संसार को असत् अर्थात् मिथ्या कहा जाय तब तो ठीक है । और यदि उक्त सिद्धान्त को सर्वे सर्वा अर्थात् निरपेक्ष रूप से सत्य मानें तब तो संसार के व्यवहार मात्र का ही सर्वथा लोप हो जावेगा । ब्रह्म से अतिरिक्त जितना भी दृश्यमान जगत् है वह यदि सर्वथा मिथ्या है तो मैं, आप
और आपके गुरुमहाराज तथा हमारा सारा वार्तालाप इत्यादि सभी मिथ्या ठहरेगा। 'ब्रह्मसत्य और जगत मिथ्या है" ऐसा कहने वाला भी मिथ्या, और उसको सुनने वाला भी मिथ्या, तब जो सर्वथा मिथ्या है उसका कथन सत्य कैसे होगा ? यदि यह कथन और कथन करने वाला सत्य है तो फिर "ब्रह्म से अतिरिक्त सब मिथ्या है" यह कथन असंगत होगा। ऐसी दशा में न कोई शिष्य, न कोई गुरु, न कोई उपास्य, न कोई उपासक, न कोई प्रश्नदाता और न कोई उत्तरदाता ही सिद्ध होगा। तात्पर्य कि ब्रह्म सत्ता से व्यतिरिक्त जब किसी पदार्थ की सत्ता को ही स्वीकार न किया जायगा तो संसार के व्यवहार मात्र का ही उच्छेद हो जावेग इसी दृष्टि को सन्मुख रखकर अनेकान्त दृष्टि प्रधान जैन दर्शन ने जहां ब्रह्म को सत्य माना है वहां जगत को भी सत्य बतलाया है । अशुद्धब्रह्म जीव के बिना और किसी जड़ पदार्थ में जगत के असार भूत सम्बन्धों का परित्याग करने की रुचि नहीं हो सकती । इसलिये जगत की सत्ता को स्वीकार करना भी आवश्यक है । और यदि जगत ही नहीं तो फिर त्याग या स्वीकार का प्रश्न ही नहीं रहता । तात्पर्य कि उपास्य और उपासक दोनों सापेक्ष्य पदार्थ हैं, एक के विना दूसरे का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये जगत् और ब्रह्म दोनों ही सापेक्ष्य सत्य हैं।
तब-"ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" इस कथन को अपेक्षाकृत सत्य मानकर समन्वयदृष्टि प्रधान जैनदर्शन की नय पद्धति से इस प्रकार समाहित कीजिये-जगतवासी जीव ब्रह्म ने अपनी कल्पना से अपने माता पिता पुत्र दारा आदि के कल्पित सम्बन्ध को अपना जगत बना लिया है अपना मान रक्खा है जो कि उसका अपना नहीं इसलिये वह सत्य नहीं किन्तु मिथ्या है । ऐसे जगत का मिथ्या स्वरूप जब भान होगा तब यह जगतवासी जीव संसार से विरक्त होकर अपने श्रेयसाधन में प्रवृति करेगा
और धीरे २ आत्मशुद्धि करता हुआ अशुद्ध ब्रह्म से शुद्धब्रह्म होजायगा, जीवात्मा से परमात्मा बन जायगा। सारांश कि अपना आत्मा-ब्रह्म सतरूप है और उसका कल्पित संसार मिथ्या है। हम लोग राग द्वेष के वशीभूत होकर जगत के झूठे मोहजाल में फंसे हुए अपने सच्चिदानन्द परिपूर्णब्रह्म स्वरूप को भूले हुए हैं। उसके वास्तविकस्वरूप का भान कराने और उसके इस औपाधिक सम्बन्ध को मिथ्या प्रतीत कराने का भरसक प्रयत्न करना यही हमारे जीवन का एक मात्र ध्येय है और होना चाहिये ।
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