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नवयुग निर्माता
को प्राप्त करता हुआ सच्चिदानन्द स्वरूप सिद्ध परमात्मा के नाम से सम्बोधित होता है और फिर उसका संसार भ्रमण अर्थात नाना प्रकार के ऊंचे नीचे स्वरूपों में अभिव्यक्त होना सदा के लिए बन्द हो जाता है
और उसकी विशुद्ध आत्मसत्ता निरन्तर सदा के लिए कायम रहती है इसी का दूसरा नाम मोक्ष है। जैसे अग्नि में भंजा हुआ बीज अंकुरित नहीं होता, उसी प्रकार कर्म बीज के नष्ट हो जाने से इस आत्मा का जन्म मरण रूपी संसार भ्रमण भी सदा के लिए बन्द हो जाता है।
यथा-दग्धेबीजे यथात्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः ।
कर्मवीजे तथा दग्धे नारोहति भवांकरः ॥ और वास्तव में विचार किया जाय तो जैन दर्शन की शुद्ध द्रव्यस्पर्शी निश्चयगामिनि एकत्वनिरूपक संग्रह दृष्टि से ही "अहं ब्रह्मास्मि अयमात्मा ब्रह्म” इत्यादि वेदान्त विचारों की सृष्टि हुई है। "संग्रहस्तु नयः प्राह जीवः शुद्धः सदाशिव." अर्थात् संग्रहनय के मत से यह जीव शुद्ध सच्चिदानन्द शिव स्वरूप है। तब आत्मा में सिद्ध और संसारी भेद की जो कल्पना है वह कर्मजन्य उपाधिमूलक है और उसकी प्ररूपणा निश्चय और व्यवहार दृष्टि को अाभारी है। तथा-"कर्मबद्धो भवेद्जीवः कर्ममुक्तो महेश्वर." यह इस अभियुक्तोक्ति का समन्वय भी इसी पद्धति का अनुसरण करने पर होता है । और जैन दर्शन के इस सिद्धान्त का समर्थन वैदिक परम्परा के प्रामाणिक साहित्य में भी जहां तहां किया हुआ देखा जाता है-महाभारत शांतिपर्व [अ० १८७ श्लो० २४ ] में महर्षि भृगु ने आत्मा और परमात्मा के स्वरूप में विभिन्नता के कारण का निर्देश करते हुए ऋषि भारद्वाज से इस प्रकार कहा है
"अात्मा क्षेत्रज्ञ इत्युक्तः संयुक्तः प्राकृतैर्गुणैः ।
तैरेव तु विनिर्मुक्तः परमात्मेत्युदाहृतः ॥ अर्थात् जब यह आत्मा प्रकृति के गुणों से युक्त होता है तब उसे क्षेत्रज्ञ या जीव कहते हैं और वही उनगुणों से मुक्त-रहित होने पर परमात्मा कहलाता है।
राजा साहब-आपकी विद्वत्ता और प्रतिभा की मैं किन शब्दों में प्रशंसा करू ? महाराज! आपने तो मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए सारे वेदान्त को ही जैन दर्शन में प्रतिबिम्बित करके दिखा दिया। मैं तो समझता था कि आप केवल जैनदर्शन के ही ज्ञाता होंगे, परन्तु आपतो जैन जैनेत्तर सभी दर्शनों में निष्णात प्रमाणित हुए हैं। आपश्री की वर्णनशैली इतनी स्पष्ट और तलस्पर्शी है कि उसमें किसी प्रकार के सन्देह को अवकाश ही नहीं मिलता । आज आपके अभिभाषण से मुझे जितनी प्रसन्नता हुई है उतनी इससे पहले कभी नहीं हुई । आप श्री ने वेदान्त के एकात्मवाद या अभेदवाद का जैनदृष्टि से जो स्पष्टीकरण किया है वह अश्रुतपूर्व अथच नित्तान्त श्लाघनीय है।
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