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________________ भावनगर के राजा से मिलाप और वेदान्त चर्चा राजासाहब-महाराज ! आप दोनों भाई भाई तो नहीं हो ? मुझे तो ऐसा ही लगता है। मैंने तो जिस समय आप दोनों के एक साथ दर्शन किये उसी समय से मेरे मनमें यह विचार उत्पन्न हो रहा है कि आपकी जन्मभूमि एक है इतना ही नहीं किन्तु आप दोनों नर पुंगवों को जन्म देनेवाली परम भाग्यवती माता भी एक है और होनी चाहिये । आप दोनों महापुरुषों की आकृति में इतनी अधिक समानता दृष्टिगोचर होती है कि उससे हर कोई देखने वाला मन में यही निश्चय करेगा कि आप दोनों सहोदर होने पाहिये। श्री आनन्दविजयजी (जरा हंस कर)-इसमें क्या शक है राजा साहब ! मैं, महात्माजी और आप हम तीनों ही भाई हैं । आप अपने गुरुजी से पूछ लीजिये । महात्माजी की तरफ इशारा करते हुए बोलेक्यों स्वामीजी ! मेरा कहना ठीक है न ? महात्माजी-हंसकर बोले हम तीन ही क्या सारा जगत हो अपना भाई है । वेदान्त शास्त्र की दृष्टि से सारा चराचर जगत ब्रह्म ही तो है। "सब खल्विदं ब्रह्म' "अहं ब्रह्मास्मि” 'अयमात्मा ब्रह्म'। राजा साहब महाराज श्री से क्यों महाराज ! आप भी इस सिद्धान्त को मानते हैं ? श्री आनन्द विजयजी-हां मानता हूँ पर किसी अपेक्षा से । द्रव्यार्थिक-अर्थात् संग्रहनय के मत से मूल द्रव्यस्पर्शी निश्चयगामिनी सामान्यदृष्टि के अनुसार-मैं ब्रह्म हूँ-मैं सिद्ध हूँ और मैं सच्चिदानन्द स्वरूप हूँ, यह कथन ठीक है । आप इसे वेदान्त का सिद्धान्त कहते व समझते हैं और मैं इसे जैन दर्शन प्रतिपाद्य अध्यात्मवाद या निश्चयवाद मानता हूँ। जितने भी संसारी जीव हैं उन सब में से ब्रह्मसत्ता, सिद्धसत्ता, और सच्चिदानन्द सत्ता मौलिकरूप से विद्यमान है। यह आत्मा कर्मों के आवरण से आवृत हुआ संसारी जीव कहा जाता है और आवरण के हट जाने से वही सिद्ध परमात्मा के नाम से अभिहित होता है । अतः जब तक यह जीव कर्म वर्गणाओं से सम्बन्ध रखता है, तब तक भिन्न २ अवस्थाओं को धारण करता हुआ भिन्न २ संज्ञाओं से संबोधित होता है, जैसे कि यह मनुष्य है, यह स्त्री है, यह पशु है, यह पक्षी है, यह देवता है, यह नारकी है, इसी प्रकार यह साधु है यह गृहस्थ इत्यादि । तात्पर्य कि एक ही आत्मा कर्मजन्म उपाधि से नानारूपों में आभासित हो रहा है । जैसे एक हलवाई खांड की चासनी के खिलौने बनाता है कोई मनुष्य, कोई स्त्री, कोई हाथी, कोई घोड़ा एवं कोई हिरण और सिंह इत्यादि, तब मनुष्याकार सांचे में ढली हुई चासणी मनुष्य, हाथी के सांचे में हाथी और हिरण के सांचे की हिरण के नाम. से सम्बोधित होती है। जैसे भिन्न २ सांचों में ढाले जाने से एक रूप चासणी जुदे जुदे रूपों में प्रतीत होती है उसी प्रकार जुदे जुदे कर्मों से प्राप्त होने वाले जुदे २ शरीर रूप संचों में चासणी के समान ढला हुआ यह जीवात्मा जुदे २ रूपों में प्रतीत होता है और जब ये कर्मजन्य आवरण इसके दूर हो जाते हैं तब यह आत्मा एक रूप एक सरीखा अपने निज स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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