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सद्गुरु की शोधं में
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का ध्यान आते हो-] सद्गुरु तो मेरे पास में ही हैं फिर चिन्ता कैसी ? बसे उन्हीं के चरणों में आत्म निवेदन कर देना चाहिये, वे भी पंजाबी और मैं भी पंजाब का । वे भी पहले इस ढूंढ़क पंथ में दीक्षित हुए और मैंने भी इस पंथ में दीक्षाली, बाद में उन्होंने भी इसे असार समझकर त्यागा और मैंने भी शास्त्रबाह्य मनःकल्पित समझकर छोड़ दिया। वे भी यहां आकर अविछिन्न वीरम्परा के श्रमण बने और मैं भी यहीं पर उस परम्परा में गिने जाने का श्रेय प्राप्त करूंगा । वे परम श्रद्धेय गणि श्री मणिविजयजी, से दीक्षित हुए
और मैं उनसे दीक्षा लेने का सौभाग्य प्राप्त करूगा" ये थे महाराज श्री आत्मारामजी के स्वगत विचार जिन्हें वे शीघ्र से शीघ्र व्यावहारिक रूप देने के लिये अनुकूल समय की बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे।
___दूसरे दिन स्वगत विचारों को प्रत्यक्ष रूप में क्रियाशील बनाने के लिये श्री विश्नचन्दजी आदि सब साधुओं से एकान्त में परामर्श करते हुए आपने फर्माया-कि लुधियाने से बिहार करते समय सर्व सम्मति से जो कार्यक्रम बनाया या निश्चित किया गया था उसमें मुख्य तीन बातें थीं-[१] जैन परम्परा के प्राभाविक प्राचीन तीर्थों की यात्रा करना [२] गुजरात देश में जाकर विशुद्ध जैन परम्परा के किसी सुयोग्य मुनिराज को गुरु धारण करके शास्त्र सम्मत साधु वेष को धारण करना और [३] वापिस पंजाब में आकर विशुद्ध जैन परम्परा की स्थापना करना। इनमें से पहला तीर्थयात्रा का कार्य तो सम्पन्न हुआ !
अब सर कार्य है गुरु धारण का, सो भाग्य से यहां पर महाराज श्री बुद्धिविजयजी-श्री बूटेरायजी महाराज विद्यमान हैं। वे हर प्रकार से सुयोग्य हैं, इसके अतिरिक्त दूसरी तरह से भी इनका हमारा परस्पर में बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध है-वे स्वयं पंजाब के हैं और हम सब का जन्म स्थान भी वही है, इन्होंने भी प्रथम ढूंढ़क पंथ की साधु दीक्षा अंगीकार की और उसी में वर्षों व्यतीत किये हैं, कुछ समय बाद जब इनको इस पंथ की वास्तविकता का ध्यान आया तो इसे त्यागकर ये भगवान महावीर स्वामी की श्रमण परम्परा में आ मिले, और हम लोगों ने भी इसे छोड़कर प्राचीन श्रमण परम्परा में दीक्षित होने का संकल्प कर रक्खा है। इन व्यावहारिक समानताओं को देखते हुए तथा इनकी साधुजनोचित्त विशिष्ट गुणसम्पदा का ध्यान करते हुए मेरा मन तो इन्ही के चरणों में निवेदित होने अर्थात् इन्हीं को गुरु धारण करने के लिये आकर्षित हो रहा है, कहो आप लोगों की क्या सम्मति है!
श्री विश्नचन्दजी-सब साधुओं की अनुमति के साथ हाथ जोड़कर-महाराज ! आप श्री ने जो कुछ फरमाया वह अक्षरशः सत्य है और हम लोग उससे पूरे २ सहमत हैं, आप भले श्री बुद्धिविजयजी महाराज को गुरु धारण करें, या इसी प्रकार के किसी अन्य महापुरुष को, इसमें हमें किसी प्रकार की भी आपत्ति नहीं, परन्तु हमलोगों के सद्गुरु तो आप केवल आपही हैं इसलिये हमें तो किसी दूसरे गुरु की आवश्यकता नहीं और नाही हमारे मन में किसी अन्य को गुरु धारण करने का संकल्प उत्पन्न हुआ है।
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