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________________ १८६ नवयुग निर्माता = तुम विन तारक कोइ न दीसे, जयो जगदीश्वर सिद्ध गिरीरे ॥१०॥ नरक तियंचगति दूर निवारी, भवसागर की पीड़ हरीरे । आत्माराम अनघ पदपामी, मोक्ष वधू तिण वेग वरीरे ॥११॥ सम्बत् बत्रीसौ ओगणीसे, मास वैसाख आनन्द भयोरे। पालिताणा शुभ नगर निवासी, ऋषभ जिनन्द चन्द दर्श थयोरे॥१२॥ श्री आदिनाथ प्रभु के दर्शन करने के अनन्तर . साथ के अन्यमन्दिरों के दर्शन करने लगे। सारा दिन दर्शनों में बीता परन्तु किसी को भी क्षुधा या पिपासा का अनुभव नहीं हुआ । जिनका मानस मधुकर परमानन्द स्वरूप प्रभु के पादारविन्द मकरन्द का यथेच्छ आस्वाद ले रहा हो उनमें लौकिक भूख प्यास की चिन्ता कहां ? सब के हृदय प्रभु दर्शन के उल्लास से भरपूर हो रहे थे। देवदर्शन के अनन्तर श्री विश्नचन्दजी आदि सभी साधुओं ने महाराज श्री आत्मारामजी की चरणधूली को मस्तक पर लगाते हुए कहा --कृपानाथ ! हम पामरों पर आप श्री ने जो महान उपकार किया है उसके लिए हम सब जन्मजन्मान्तर तक आपके ऋणी रहेंगे । यदि हमलोगों को आप श्री का पुण्य सहयोग उपलब्ध न होता तो क्या हमें कभी ऐसा पुण्य अवसर प्राप्त होता ? आज हम लोग जिस अपूर्व आनन्द का अनुभव कर रहे हैं उसका तो हमें कभी स्वप्न में भी भान नहीं था, यह सब कुछ आप श्री के महान् व्यक्तित्व को ही आभारी है जो कि हमारे जैसे पामर प्राणियों को नरक यातना से निकाल कर किसी अलौकिक स्वर्गीय सुख का प्रत्यक्ष अनुभव करा रहे हैं। हम लोगों के हृदय में आप श्री के लिए जो सद्भावना है उसे हम शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं कर सकते । आप जैसे महान उपकारी सद्गुरु का पुण्य संयोग भव भव में प्राप्त हो यही हमारी शासन देव से प्रार्थना है। महाराज श्री आत्मारामजी ने श्री विश्नचन्दजी आदि साधुओं के उक्त सद्भाव पूर्ण उद्गारों का सप्रेम अभिनन्दन करते हुए कहा कि यह सब कुछ तुम लोगों के सद्भावपूर्ण साधु व्यवहार को ही आभारी है, तुम्हारे किसी महान पुण्य के उदय का ही यह शुभ परिणाम है । मानव प्राणी का सत्तागत पुण्य प्रचय जब उदय में आता है तब उसके ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदय के साधनों का संयोग उसे स्वयमेव प्राप्त होता चला जाता है और जब उसके किसी पापकर्म का उदय होता है तब उसे अधोगति या असद्गति के साधन भी अनायास ही मिलजाते हैं । अपने लोगों के किसी महान् पुण्यकर्म के उदय का ही यह फल है जोकि वीतराग देव के सर्वोत्कृष्ट साधु धर्म में दीक्षित होने का हमें अवसर प्राप्त हुआ है । सुदेव सुगुरु और सुधर्म की प्राप्ति ही मानव जीवन का सर्वोत्कृष्ट साध्य है. सो उसकी उपलब्धि नितरां पुण्याधीन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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