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अध्याय २६
नियम के प्रकाश में मिलाफ"
पूज्य श्री अमरसिंहजी की आंखें पोंछने की खातिर श्री विश्नचन्दजी अलग मकान में तो ठहरे परन्तु मन तो उनका श्री श्रात्मारामजी के चरणों के इर्द गिर्द ही चक्कर काटने लगा। उनके जगरावां पहुँचने और अलग मकान में ठहरने का समाचार एक श्रोसवाल सज्जन के द्वारा जब महाराज श्री आत्मारामजी को मिला तब वे बड़े प्रसन्न हुए और अपने स्थान से चलकर जहां विश्नचन्दजी ठहरे हुए थे वहां पहुँचकर उनसे मिले । मिलकर कहने लगे कि पूज्यजी साहब ने न मिलने का नियम तुमको कराया है, मेरे को तो नहीं कराया ? अब तो मैं तुमसे मिला हूँ, तुम मुझ से नही मिले, इसलिये तुमारे नियम में कोई बाधा नहीं आई।
श्री विश्नचन्दजी ने उठकर आपका हार्दिक स्वागत किया और हाथ जोड़कर कहने लगे। महाराज ! आपकी इस महती कृपा के लिये हम सब आपके बहुत २ आभारी हैं । इस नियम की कीमत जो हमारे दिल में है उसे आप अच्छी तरह से समझते हैं । अबोध जनता को अपनी ओर आकर्षित करके उसके मताग्रही मानस को बदलना उतना ही कठिन है जितना कि एक तरफ बहते हुए नदी के प्रवाह को रोक कर दूसरी तरफ ले जाना । सो जब तक हमें अपने निर्धारित कार्य में पूरी २ सफलता नहीं मिल जाती तब तक तो नीति मार्ग का अनुसरण करना ही उचित रहेगा । अन्यथा हमें इच्छित सफलता का मिलना कठिन है। और हमारा उद्देश्य बिलकुल शुद्ध एवं निस्वार्थ है इसलिये गुप्त प्रचार की नीति को अपनाना हमारे लिये दोषावह भी नहीं है।
श्री आत्मारामजी-तुम लोग जिस नीति से काम कर रहे हो वही हमारे कार्य के लिये हितकर है, पूज्य जी साहब के प्रतिकूल चलकर तुम्हें काम करने में कितनी कठिनाई होगी इसका मुझे पूरा २ अनुभव है, इसलिये बाह्य रूप से तुमारा उनके साथ मिले रहना ही अच्छा है, मुझे इसी में प्रसन्नता है । और मैं
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