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________________ अध्याय २५ "तुम नहीं मिलने का नियम लो!" जीरा में अपने समुदाय के साधु कल्याणजी को श्री आत्मारामजी का अनुगामी बना जान, पूज्य श्री अमरसिंहजी को बड़ा क्रोध आया । उन्होंने श्री हुक्म मुनि को फौरन अपने पास-[भदौड़ में ] बुलाया और डांटते हुए कहा कि तूं मेरा होकर मेरे ही घर को लुटा रहा है ! ऐसा करते हुए तुमको कुछ विचार नहीं आया ? तूं कल्याणजी को लेकर जीरे क्यों गया था ? तुमको मालूम नहीं था कि वहां श्रात्माराम बैठा है, और वह-कल्याणजी कच्चे विचारों का है, अगर उसके सम्पर्क में एक बार भी आगया तो फिर वह अपना नहीं रहेगा ! पूज्यजी साहब के इस वार्तालाप को सुनकर हुक्म मुनि (मन ही मन में)-"पूज्यजी साहब ! श्राप भूलते हो, हुक्म मुनि अब श्रापका नहीं है, वह तो बहुत दिनों से तुमारा सम्बन्ध छोड़ चुका है, उसका मानसिक सम्बन्ध तो अंब श्री आत्मारामजी से है, जो कि वीर भाषित सच्चे जैनधर्म के प्ररूपक हैं। तभी तो वह कल्याणजी को श्री आत्मारामजी के पास लेकर गया ताकि वह उन्मार्ग को छोड़ सन्मार्ग का अनुसरण करे । (प्रकट रूप में)-महाराज ! क्षमा करें मुझसे बड़ी भूल हुई, मैं यह नहीं समझता था कि वह-कल्याणजी वहां जाकर आत्मारामजी के चंगुल में फंस जायगा। पास में बैठे हुए श्री विश्नचन्दजी आदि ने भी पूज्यजी साहब की आंखें पोंछते हुए कहा-महाराज! अब इसे क्षमा करो! अगर कल्याणजी चला गया तो कौनसी कानखजूरे की टांग टूट गई है ? ऐसी बातों पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता नहीं। उसी रोज़ श्री विश्नचन्दजी आदि साधुओं ने लुधियाने को विहार करने का निश्चय किया हुआ था। जब वे विहार करने की तैयारी करने लगे तब पूज्यजी ने उनको बुलाकर कहा कि, तुमारे रास्ते में आत्माराम जीरे से विहार करके जगरावां में आकर बैठा है, तुम लोग उससे मिलो, यह मुझे अच्छा नहीं लगता। श्री विश्नचंदजी-क्यों महाराज ! मिलने में क्या हरकत है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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