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अध्याय २२
पूज्याजी साहक से मेट
अब से लगभग चार वर्ष बाद [ वि० सं० १९.३ में जब कि श्री आत्मारामजी और पूज्य अमरसिंहजी दोनों अमृतसर में पधारे हुए थे | पूज्य श्री अमरसिंहजी और श्री आत्मारामजी की अकस्मात् रास्ते में भेट होगई ! जब कि श्री आत्मारामजी जगरावां से विहार करके जीरे को जारहे थे और पूज्य श्री अमरसिंहजी जीरे से विहार करके जगरावां को आरहे थे। सामने आते हुए आत्मारामजी को देखते ही क्रोध के मारे पूज्यजी साहब की आंखें लाल हो उठीं और होठ फड़कने लगे -[ जिस व्यक्ति के प्रति असद् भाव की भावना हो उसके लिये क्रोध या ईर्षा का जागृत होना मानवप्रकृति का यह स्वाभाविक गुण है, जो व्यक्ति इससे ऊंचा उठ जाता है अर्थात् जिसे प्रकृति का यह गुण स्पर्श नहीं करता वही व्यक्ति संसार में सबसे ऊंचा होता है ] वे जब रास्ता काटकर दूसरी ओर से जाने लगे तब श्री आत्मारामजी ने आगे बढ़कर उनके हाथ को जबरदस्ती पकड़कर बैठा लिया । और विधिपूर्वक वन्दना करने के बाद कुछ मुस्कराते हुए पूज्यजी साहब से इस प्रकार बोले-महाराज! आप इतने अप्रसन्न क्यों हो रहे हैं ? मैंने आपका क्या बिगाड़ किया है ? आपके भेजे हुए मेजरनामे पर मैंने अपने हस्ताक्षर नहीं किये, यह तो सिद्धान्त का प्रश्न है, आपका और मेरा सिद्धान्त नहीं मिलता तो न सही, मानवता के नाते तो हम एक हैं आपको इतने पर से इस कदर तलमला उठने की क्या आवश्यकता थी ? यदि आप मुझे पंजाब में रखना नहीं चाहते थे तो इसका सीधा और सरल उपाय यह था कि आप मुझे अपने पास बुलाकर कह देते कि तुमारे पंजाब में रहने से हमारी प्रतिष्ठा और गद्दी को खतरे की संभावना है इसलिये तुम पंजाब को छोड़कर दूसरे देशों में विचरो ! संभव है मैं आपके इस आदेश को मानकर पंजाब से बाहर ही चला जाता क्योंकि इसमें मेरी सत्यनिष्ठा और साधुता की कोई क्षति नहीं थी ? मुझे तो यह स्वप्न में भी ध्यान नहीं था कि आपके साधु जनोचित धैर्य का वान्ध इतनी जल्दी और इस प्रकार टूट जायगा। आपने देशदेशान्तरों में मेरे विरुद्ध पत्र लिखवाने का महान् कष्ट किया और आत्माराम को हमने पंजाब देश से निकाल दिया है, तुम लोगों ने इसका
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