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१५ वर्ष की आयु में अनि गुरु आत्म का ही पहली बार दिव्य धर्मोपदेश सुना और उसी समय से अक्षय मात्मधन की प्रा के लिए वे उनके अनुयायी बन गए । १६४४ वि० में आपने उनसे गुरुमंत्र लेकर जैन साधु का जी स्वीकार किया और १६५३ वि० में उनके स्वर्गवास के समय तक उन्हीं की छत्रछाया में रहकर उनसे क से अधिक ग्रहण करने का भागीरथ प्रयत्न किया। उनके उच्च चरित्र, क्रियात्मक जीवन, अनुपम तप, रंग व संयम की छाप आप पर लगी हुई थी। उनकी प्रकाण्ड विद्वत्ता का प्रतिबिम्ब श्रापके हृदय पर अंति हुआ। उन्होंने भी समाज के नेतृत्व व पथ प्रदर्शन का कार्य आपके यौवनपूर्ण बलिष्ठ कन्धों पर डाला। आपने भी गुरु के मिशन को जीवन का श्वास बनाकर अपनी ८४ वर्ष की आयु तक धर्म, समाज, देश व मानता की सेवा के लिए आत्मसमर्पण कर दिया। आपने गुरुभक्ति का, सच कहा जाए, तो एक 'नया रिका कायम किया । वृद्धावस्था और नेत्रज्योति की क्षीणता को पराजित करते हुए आपने उस महान काम को पूर्ण कर दिया। सच तो यह है कि गुरुग्राम के विषय में कुछ भी लिखने का वास्तविक अधिकार भी उन्हें था, और इस विषय के अधिकारी विद्वान व जानकार भी वही थे।
ग्रंथ के प्रकाशन का कार्य भी सरल न था । उदार महानुभावों की गुरुभक्ति से प्रेरित होकर महासभा ने इसका बीड़ा उठाया । जिन दानी महानुभावों ने आर्थिक सहायता देकर कार्य को सुगम बनाया है, मैं उनका कृतज्ञ हूँ । पुस्तक का सम्पादन प्रसिद्ध विद्वान् व सुवक्ता पं० हंसराजजी शास्त्री के कठोर परिश्रम का परिणाम है, मैं उनका हृदय से आभारी हूँ । उसे छापने में श्री ईश्वरलालजी जैन 'स्नातक' ने तत्परता दिखाई है, मैं उनका भी धन्यवाद करता हूँ।
प्रन्थ अभी प्रेस में था कि हमारे आराध्य गुरुदेव श्री विजयवल्लभ सूरिजी का देवलोक गमन हो गया। उनके पट्टधर प्राचार्य श्री विजयसमुद्र सूरिजी व उनके शिष्य मंडल की अनथक कोशिशों से महासभा को इस काम को पूरा करने में सफलता मिली है । मैं उनका हार्दिक आभार मानता हूँ।
श्री आत्मानन्द जैन कालेज अंबाला शहर के संस्कृत व जैनविभाग के अध्यक्ष प्रो. पृथ्वीराज जी एम० ए० शास्त्री ने भी गुरु आत्म का एक खोजपूर्ण जीवन चरित्र लिखा है और उनके अमर ग्रन्थों से उनके विचार संगृहीत किए हैं। अब उसका प्रकाशन हाथ में लिया जाएगा। आशा है समाज पूर्ण सहयोग व सहायता देगी।
सेवकः
बाबूराम जैन एम. ए., एल एल. बी. प्लीडर जीरा प्रधान श्री आत्मानन्द जैन महासभा पंजाब
अम्बाला शहर ।
१२-१६५५
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