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मूर्तिवाद का शास्त्रीय निर्णय
" सति कुये चित्र ” ( दीवार हो तो उस पर चित्र लिखा जा सकता है) इस न्याय से जिन - प्रतिमा और उसकी पूजा के अस्तित्व को स्वीकार किये बिना न तो वन्दना नमस्कार का विधान हो सकता है और ना ही उसका निषेध किया जा सकता है । परन्तु आगम में उसका उल्लेख विद्यमान है ऐसी दशा में इन आगम पाठों की उपपत्ति के लिये यह बलात् स्वीकार करना होगा कि श्रमणोपासक आनन्द और परिव्राजकाचार्य अम्बड़ के समय में जैसे अन्यमत वालों में मूर्तिपूजा प्रचलित थी उसी भाँति जैनसम्प्रदाय में भी उसका सुविहित प्रचार था ।
इसके अलावा इन लेखों से यह भी सुनिश्चित होता है कि उस समय जैन प्रतिमायें इतनी सर्वप्रिय हो चुकी थीं कि अन्यमतानुयायी लोग उनको अपने मन्दिरों में अपने देव के नाम से प्रतिष्ठित करके पूजने लग पड़े थे । इसलिये उपासकदशा और औपपातिक सूत्र गत उक्त पाठों से जिन प्रतिमा अथच मूर्तिपूजा की विधेयता प्रमाणित होने में किसी प्रकार के भी सन्देह को अवकाश नहीं रहता । ये दोनों ही लेख मूर्तिवाद के विधायक अथच समर्थक हैं, पहला निषेध प्रतिफलित विधि रूप से, उसका समर्थक है जबकि दूसरे में निषेध प्रतिफलित विधिवाद और स्वतन्त्र विधिवाद दोनों ही समन्वित हैं उक्त दोनों ही आगम पाठ मूर्ति उपासना के विधायक हैं अनुवाद मात्र नहीं हैं। इस पर भी यदि हमारे सम्प्रदाय वालों को आगमों में जिन - प्रतिमा का समर्थक कोई विधि वाक्य नहीं मिलता या दिखाई नहीं देता तो इसमें आगमों का क्या दोष ? “ नायं स्थाणोरपराधः यदेनमन्धो न पश्यति पुरुषापराधोहि सः ||"
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(२) इसके अलावा राजप्रश्नीय और जीवाभिगम आदि आगम ग्रन्थों में सिद्धायतनों, शाश्वत जिनraat और शाश्वती जिन प्रतिमाओं के जो उल्लेख हैं उनसे तो आप लोग भी अच्छी तरह से परिचित हैं । नन्दीश्वर द्वीप में अंजनक और दधिमुख आदि पर्वतों पर बीस जिनायतन शाश्वत जिन भवन हैं, वहां पर देवता लोग चतुर्मास की प्रतिपदाओं, साम्वत्सरिक पर्वों, तीर्थंकर के जन्म कल्याणकों तथा अन्य देव कार्यों पर एकत्रित होकर न्हिका महोत्सव (अठाई महोत्सव) करते हुए आनन्द पूर्वक विचरते हैं । *
इस प्रकार देवलोक के शाश्वत जिन भवनों एवं तिर्यक लोक के शाश्वत और शाश्वत अर्थात् कृत्रिम तथा कृत्रिम जिन बिम्बों-जिन प्रतिमाओं के आगम गत उल्लेखों पर से जैन परम्परा में जिन प्रतिमा को कितना महत्वपूर्ण समर्थन प्राप्त हैं इसकी कल्पना सहज ही में की जा सकती है ।
तथा व्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र में लब्धि सम्पन्न सुनियों की उर्ध्व और तिर्यग गति के विषय में श्री गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो कुछ फर्माया है उसको देखते हुए कोई भी विचारशील बुद्धिमान् पुरुष यह कहे बिना नहीं रह सकता कि जैन परम्परा के अत्यन्त प्राचीन मूल आगमों में जिन - प्रतिमा अर्थात् मूर्ति उपासना को अधिक से अधिक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त है ।
* जीवाभिगम-विजय देवाधिकार, और नन्दीश्वर द्वीपाधिकार में तथा राजप्रश्नीय-सूर्याभदेव के वर्णन प्रसंग में देखो ।
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