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________________ ४७ अपने उपाश्रय में भी प्रतिमाओं की स्थापना कर मूर्तियों की उपासना की है। लोंकागच्छ का एक भी उपाश्रय ऐसा नहीं था जहाँ श्री वीतराग प्रभु की मूर्ति न हो। परन्तु विक्रम की १८ वीं सदी में यति धर्मसिंह और लवजी ऋषि-दोनों ने लोंकागच्छ से अलग होकर पुनः मूर्ति के विरुद्ध विद्रोह खड़ा किया। लोंकागच्छ के श्रीपूज्यों ने दोनों को गच्छ से बाहर कर दिया पर उन दोनों के द्वारा प्रचारित मत चल पड़ा। इस नये मत को "हूँढक मत" का उपनाम मिला। इस संप्रदाय का दूसरा नाम "साधु मार्गी" अथवा "स्थानकवासी" पड़ा। इन ढूढियों और लोकाशा के अनुयायियों में क्रिया और श्रद्धा में दिन रात जैसा अंतर है। स्थानकमार्गी यानी ढूढक लवजी ऋषि के अनुयायी हैं। स्थानकवासी समाज की उत्पत्ति का यह संक्षिप्त इतिहास है । आज उनमें से भी बहुतों ने मूर्ति पूजा की आवश्यकता और हितकारिता को स्वीकार किया है। इस प्रकार मूर्ति पूजा का अस्तित्व सनातन काल का है । सभी सुविहित प्राचार्यों ने इस विधान को प्रादर देकर जैन समाज पर बड़ा उपकार किया है । मूर्ति पूजा के विरोधी भी मूर्ति पूजा को मानते हैंइसके उदाहरण : मूर्ति पूजा का सर्व प्रथम विरोधी महम्मद है परन्तु उसके अनुयायी भी अपनी मस्जिदों में पीरों की आकृतियाँ बनाकर पुष्प-धूपादि से पूजते हैं, ताजीया बनाकर उसके आगे Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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