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प्रभाव अनेक व्यक्तियों पर पड़ चुका था तथा अनेक अज्ञान व्यक्तियों ने अनार्य संस्कृति का अंध अनुकरण कर बिना कुछ सोचे समझे आर्य मंदिर एवं मूर्तियों की ओर क्रूर दृष्टि से देखना प्रारम्भ कर दिया था ।
श्वेताम्बर जैनों में लोंकाशा, दिगम्बर जैनों में तारणस्वामी, सिक्खों में गुरु नानक, जुलाहों में कबीर, वैष्णवों में रामचरण तथा अंग्रेजों में मार्टिन लूथर आदि लोगों ने बिना सोचे समझे संस्कृति के आधार स्तंभ रूप मंदिर और मूर्तियों के विरुद्ध आवाज उठाना शुरू कर दिया था । 'ईश्वर की उपासना के लिये इन जड़ पदार्थों की कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसा कहकर मूर्तियों द्वारा अपने इष्ट देवों की उपासना करने वालों को उन्होंने आत्मकल्याण के मार्ग से हटा दिया था ।
श्वेताम्बर जैनों का लोंकाशा के साथ संबन्ध है । लोंकाशा के जीवन के विषय में भिन्न भिन्न लेखकों के अलग अलग उल्लेख मिलते हैं परन्तु लोंकाशा का जैन साधु के द्वारा अपमान हुआ, इस विषय में सभी एकमत हैं । एक ओर उसका अपमान तथा दूसरी ओर मुसलमानों का सहयोग लोंकाशा को कर्तव्यच्युत करने वाला सिद्ध हुआ ।
वि. सं. १५४४ के आसपास हुए उपाध्याय श्री कमलसंयमो सिद्धान्त चौपाई में लिखते हैं कि फिरोजखान नामका बादशाह मन्दिरों और पौषधशालाओं को ध्वंस कर जिनमत को कष्ट पहुँचाता था । दुषम काल के प्रभाव से बुखार के साथ सिरदर्द की तरह, लोंकाशा को उसका सहयोग मिल गया ।
प्रवेश में अंधा इन्सान क्या क्या कुकर्म नहीं करता ? इस विषय में जमालि और गोशाला के दृष्टांत प्रसिद्ध हैं । क्रोधावेश
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