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जहाँ मन्दिर एवं मूर्ति पर किया हुआ धनव्यय नष्ट नहीं होता पर वह रूपान्तरित हो जाता है, जबकि भोगों के उपभोग में, ऐश आराम में तथा मौज शौक के साधनो पर खर्च किया हुआ धन क्षणिक फल देकर पूर्ण रूप से नाश होता है तथा भोक्ता के लिये अनर्थ एवं उन्माद वृद्धि का कारण बनता है और उस मार्ग में व्यय किया हुआ एक पैसा भी परमात्मा अथवा उसके पवित्र शासन की आराधना के मार्ग में उपयोगी नहीं बन सकता । ___ अविनाशी और अपार सुख से भरपूर मोक्ष एवं इसकी प्राप्ति के पथ प्रदर्शक तथा आत्म-तत्त्व और अनात्म-तत्त्व का भेद समझा कर प्रात्म-तत्त्व के उपासक बनाने वाले परमात्मा के मनोहर मंदिरों में एवं इन तारकों की सुन्दर प्रतिमाओं में सर्वस्व अर्पित कर देने की भावना कृतज्ञ आत्मानों में न हो, ऐसा कैसे हो सकता है ? ऐसी बुद्धि कृत्रिम या निरर्थक नहीं होती परन्तु स्वाभाविक एवं सार्थक होती है।। ___ धर्म दृष्टि से यह धन-व्यय आत्मा को परमेश्वर परायण बनाता है, व्यवहार दृष्टि से मूर्ति और मन्दिर के रूप में जगत् में कायम रहता है तथा दीर्घ-काल तक अनेकों का उपकार करता हुआ बना रहता है। जीवन में प्राप्त पदार्थों का श्रेष्ठतम उपयोग कराने वाला यदि कोई भी मार्ग है तो वह इस प्रकार श्री जिन मन्दिर और श्री जिनमूर्ति आदि की भक्ति में होने वाला धनव्यय ही है। धन के सद्व्यय का इससे श्रेष्ठ मार्ग अन्य नहीं हो सकता; क्योंकि दूसरा कोई भी मार्ग इस प्रकार कल्याणकारी हो ऐसा सम्भव नहीं है । ... इस राह से भिन्न राह पर किया गया धनव्यय सम्यग्दृष्टि आत्माओं के मन को कृत्रिम एवं निरर्थक लगता है तथा उनकी
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