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नामादि तीनों निक्षेप भगवान् के तद्र पचने की बुद्धि के कारण हैं तथा उनको शुद्ध हृदय वाले गीतार्थ पुरुषों ने शास्त्र से तथा अपने अनुभव से स्वीकार किया है तथा बारंबार उनका अनुभव किया है । इससे प्रति की प्रतिमा का अनादर कर मात्र भाव अर्हत को जो मानने वाले हैं उनकी बुद्धि दर्पण में मुख देखने वाले अंधे पुरुषों की भाँति कुत्सित एवं दोषयुक्त है । (२),
( ३ ) स्वांतं ध्वान्तमयं मुखं विषमयं दृग् धूमधारामयी, तेषां यैर्न नता स्तुता न भगवन्मूर्तिर्न वा प्रेक्षिता । देवैश्चारणपुर्गवैः सहृदयैरानन्दितैर्वन्दिता, ये त्वेनां समुपासते कृतधियस्तेषां पवित्रं जनुः ॥
जिन्होंने भगवान् की मूर्ति को नमस्कार नहीं किया उनका हृदय अंधकारमय है; जिन्होंने उनकी स्तुति नहीं की उनका मुख विषमय है तथा जिन्होंने इनका दर्शन नहीं किया उनकी दृष्टि धुएँ से व्याप्त है । देवगरण, चारण, मुनि और तत्त्ववेत्तात्रों द्वारा आनन्द से वंदना की हुई इस प्रतिमा की जो उपासना करते हैं, उनकी बुद्धि कृतार्थ है और उनका जन्म पवित्र है ( ३ )
( ४ )
उत्फुल्लामिव मालतीं मधुकरो रेवामिवेभः प्रियां, माकन्दद्रुममंजरीमिव पिकः सौन्दर्यभाजं मधौ । नन्दच्चन्दनचारुनन्दनवनीभूमिमिव द्यो: पतिस्तीर्थेश प्रतिमां न हि क्षरणमपि स्वान्ताद्विमु चाम्यहम ॥
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