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________________ १६५ बली कर्म अर्थात् घरमंदिर की पूजा करके मन की शुद्धि के लिये कौतुक मंगल करने वाली वह, शुद्ध दोष रहित पूजन योग्य, बड़े जिनमंदिर में जाने योग्य प्रधानवस्त्र पहनकर मज्जन घर में से निकलती है और निकलकर जहाँ जिनमंदिर है उस स्थान पर पाती है। आकर जिनघर में प्रवेश करती है तथा तत्पश्चात् मोरपंख द्वारा प्रमार्जन करती है। बाकी जैसे सूर्याभदेव ने प्रतिमा पूजन की उसी विधि से सत्तर प्रकार से पूजा करती है। धूप करती है। धूप करके बांया घुटना ऊपर रखती है व दाहिना घुटना जमीन पर स्थापित करती है। तीन बार पृथ्वी पर मस्तक झुकाती है तथा फिर थोडी नीचे झुककर, हाथ जोड़कर, दस नाखून शामिल कर, मस्तक पर अंजलि कर ऐसा कहती है-'अरिहंत भगवान् को नमस्कार हो' जब तक सिद्धगति को प्राप्त हुए तब तक अर्थात् संपूर्ण शक्रस्तव बोलती है। वंदन-नमस्कार करने के बाद मंदिर में से बाहर निकलती हैं। (मज्जन घर में द्रोपदी ने घर-मंदिर की पूजा की है । उसके बाद अच्छे वस्त्र पहन कर बाहर मन्दिर में गई है। इसी प्रकार अब भी कई श्रावक करते हैं) (१०) श्री उपासकदशांग सूत्र में आनन्द श्रावक द्वारा जिनप्रतिमा के वंदन का पाठ है । वह नीचे माफिक है__ "नो खलु मे भंते ! कप्पइ प्रज्जप्पभिई अन्नउत्थि ये वा, अन्नउत्थियदेवयारिण वा, अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंतचेइयारिण वा वंदित्तए वा नभंसित्तए वा" ____ भावार्थ-हे भगवन् ! मेरे आज से लेकर अन्यतीर्थी (चरकादि), अन्यतीर्थी के देव (हरि हरादि) तथा अन्य तीथियों Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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