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बली कर्म अर्थात् घरमंदिर की पूजा करके मन की शुद्धि के लिये कौतुक मंगल करने वाली वह, शुद्ध दोष रहित पूजन योग्य, बड़े जिनमंदिर में जाने योग्य प्रधानवस्त्र पहनकर मज्जन घर में से निकलती है और निकलकर जहाँ जिनमंदिर है उस स्थान पर पाती है। आकर जिनघर में प्रवेश करती है तथा तत्पश्चात् मोरपंख द्वारा प्रमार्जन करती है। बाकी जैसे सूर्याभदेव ने प्रतिमा पूजन की उसी विधि से सत्तर प्रकार से पूजा करती है। धूप करती है। धूप करके बांया घुटना ऊपर रखती है व दाहिना घुटना जमीन पर स्थापित करती है। तीन बार पृथ्वी पर मस्तक झुकाती है तथा फिर थोडी नीचे झुककर, हाथ जोड़कर, दस नाखून शामिल कर, मस्तक पर अंजलि कर ऐसा कहती है-'अरिहंत भगवान् को नमस्कार हो' जब तक सिद्धगति को प्राप्त हुए तब तक अर्थात् संपूर्ण शक्रस्तव बोलती है। वंदन-नमस्कार करने के बाद मंदिर में से बाहर निकलती हैं।
(मज्जन घर में द्रोपदी ने घर-मंदिर की पूजा की है । उसके बाद अच्छे वस्त्र पहन कर बाहर मन्दिर में गई है। इसी प्रकार अब भी कई श्रावक करते हैं)
(१०) श्री उपासकदशांग सूत्र में आनन्द श्रावक द्वारा जिनप्रतिमा के वंदन का पाठ है । वह नीचे माफिक है__ "नो खलु मे भंते ! कप्पइ प्रज्जप्पभिई अन्नउत्थि ये वा, अन्नउत्थियदेवयारिण वा, अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंतचेइयारिण वा वंदित्तए वा नभंसित्तए वा" ____ भावार्थ-हे भगवन् ! मेरे आज से लेकर अन्यतीर्थी (चरकादि), अन्यतीर्थी के देव (हरि हरादि) तथा अन्य तीथियों
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