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१५३ इस प्रकार कई प्रकार से मुसलमान भी अपनी मानी हुई पूज्य वस्तुओं की मूर्ति को एक समान मान देते हैं ।
पारसी लोग अग्नि को मानते हैं और यह भी एक प्रकार की स्व-इष्ट देव की स्थापना ही है ।
नानक पंथी गुरु नानक के पश्चात् उनकी गद्दी पर बैठने वाले जितने भी गद्दीपति हुए उन सबकी लिखी पुस्तकों को परमेश्वर तुल्य मान कर भक्ति करते हैं। ग्रन्थ को विराजमान करते समय बड़े बड़े जुलूस निकालते हैं, सुसज्जित भवनों में ऊँचे प्रासन पर रखकर उनके समक्ष नाट्य आदि करते हैं तथा उनका रात दिन गुणगान करते हैं। पुस्तकें भी अक्षरों की स्थापना ही हैं।
कबीर पंथी कबीर की गद्दी को पूजते हैं। कोई उनकी पादुकाओं को पूजता है और सभी उनकी रचित पुस्तकों को सिर पर चढ़ाते हैं।
दादू पंथी दादूजी की स्थापना तथा उनकी वाणी रूप ग्रन्थ को पूजते हैं । समाधि-स्थल बनवाकर उसमें गुरु के चरणों को प्रतिष्ठित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं ।
वेदों में भी मूर्ति पूजा के अनेक पाठ हैं ! अतः आर्यसमाजियों का मूर्ति का खण्डन करना सर्वथा अनुचित है। उनके स्वामी दयानन्द शरीरधारी मूर्तिमय थे वेद शास्त्रों की अक्षर रूप में स्थापना को वे मानते थे तथा स्व-रचित सत्यार्थप्रकाश प्रादि पुस्तकों में अपनी वाणी की आकृतियों द्वारा ही बोध करते तथा करवाते थे। इन प्राकृतियों का प्राश्रय यदि नहीं लिया होता तो किस तरह अपने मत की स्थापना कर सकते थे ?
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