SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में आस्तिक्य का भंग अर्थात् एक प्रकार की नास्तिकता ही है । प्रकट नास्तिकता से जो हानि पहुँचती है. उससे भी अधिक हानि प्रच्छन्न नास्तिकता से हो जाती है । प्रकट नास्तिक के लिए सुसंयोगवश प्रास्तिक बनने की जितनी संभावना है उतनी संभावना प्रच्छन्न नास्तिक के लिए प्रायः नहीं है, क्योंकि वास्तविक प्रकार का प्रास्तिक नहीं होते हुए भी अधिकांशतः आस्तिकता के मिथ्याभिमान में मग्न होकर वह समस्त जीवन को नष्ट करने वाला होता है । नाम और आकार के आलंबन की आवश्यकता : * श्री जिनेश्वरदेव, उनके मार्ग पर चलने वाली निग्रंथ गुरु और उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म - इन तीनों को मानते हुए भी इन तीनों की साधना जितनी २ विधियों से होती है उन सब विधियों को नहीं मानने वाली आत्माएँ श्री जिनशासन के परमार्थ आस्तिक के रूप में टिक नहीं सकती । "श्री जिनेश्वर देव की साधना जिस प्रकार उनके नाम स्मरण से होती है, उनके गुरण स्मरण से होती है, उनके पूर्वापर के चरित्रों के श्रवण से होती है, उनकी भक्ति से होती है, उनकी आज्ञाओं के पालन से होती है, उसी प्रकार उनके आकार, मूर्ति या प्रतिबिम्ब की भक्ति से भी होती ही है, " - यह सत्य जब तक स्वीकार न किया जाय तब तक श्री जिनेश्वर देव की कृत उपासना भी अपूर्ण ही रहती है । श्री जिनेश्वर देव की पूजा कोई कल्पित वस्तु नहीं अथवा अपना स्वार्थ साधने के लिए किन्ही धूर्त व्यक्तियों के द्वारा आविष्कृत वस्तु नहीं है । यह तो भक्त आत्मानों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy