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________________ नया आश्चर्य ५६ देखकर भी स्वयं निश्चित हुआ बैठा है, जैसे उसे मरना ही नहीं है । धर्मराज युधिष्ठिर ने इसे ही सबसे बड़ा आश्चर्य कहा है ! यक्ष ने जब उनसे पूछा- धर्मराज ! कहिए, संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? तो युधिष्ठिर बोले अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममंदिरम् । शेषाजीवितुमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् । संसार प्रतिदिन मर रहा है, एक-से-एक आगे यमराज के द्वार पर पहुंच रहे हैं, किंतु अपने बाप दादों, और मित्र - बंधुओं की मृत्यु देखकर भी जो आज जीवित है वह सोचता है कि बस, वे चले गये, मुझे तो सो वर्ष और जीना है - इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा ? दूसरों को मरते देखकर भी मनुष्य अपना मरना भूल गया है । कोई किसी से मरने की बात कहे, तो उत्तर में वह कह उठता है - 'मरे मेरे दुश्मन !' वह नहीं सोचता कि 'दुश्मन तो मरेगा, पर क्या तुम नहीं मरोगे ?' ईरान का न्यायी और सदाचारी बादशाह नौशेरवां एक बार दरबार में बैठा था । एक आदमी ने आकर कहा - 'भगवान की कृपा समझिए, आपका अमुक शत्रु मर गया है ।' बादशाह ने एक तीखी नजर उसके चेहरे पर डाली और बोले -- 'क्या तुमने नहीं सुना, कि भगवान ने मुझे अमर जीवन प्रदान कर दिया है ?" Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003199
Book TitlePratidhwani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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