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________________ स्वरूप भावना स्वामिन् ! मैं तेरा दास हूँ; मेरी इच्छाओं का तू ही स्वामी है, तू ही मेरे भाग्य का विधाता है, मुझे दर्शन दे, मैं तेरी आज्ञाओं का पालन करूगा । ईश्वर ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। दार्शनिक और चिन्तन करने लगा। एक दिन फिर उसने उसी पर्वत पर चढ़ कर पुकारा हे परम पिता ! मैं तेरी सन्तान हूँ, तुमने ही मुझे पैदा किया है, मेरे पास जो कुछ है, तरा दन है, मेरी प्रार्थना सुन और मुझे अपनी छवि दिखा ! ईवदर तब भी मौन रहा । दार्गनिक पुनः ईश्वर की खोज में लीन हो गया और एकदिन फिर पहाड़ की चोटी पर चढ़ कर ईश्वर को सम्बोधित किया-“हे प्रभु ! मेरे मन में रात दिन तम बसे हो, जैसे यूवति के मन में उसका प्रेमी ! तुम ही सच्चे मित्र हो, तुम्ही सच्चे सखा हो, अब आओ! और मेरी अन्तर पीड़ा को शांत करो।" ईश्वर की ओर से कोई प्रतिध्वनि लौटकर नहीं आई । दार्शनिक तब भी विचलित नहीं हुआ और सोचता रहा। एक दिन पुनः असीम साहस बटोर कर उसने गंभीर स्वर से आह वान किया-“हे परमात्मा ! मैं वही आत्मा हैं, जो एक दिन परमात्मा बनेगा । मैं पृथ्वी पर पड़ा मूल हूं, तुम आकाश में खिले फूल हो । मैं और तुम दो नहीं, Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003199
Book TitlePratidhwani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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