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अप्प दीपो भव
एक वर्ष बीत जाने पर भी वह सम्राट् की सभा में नहीं पहुँचा तो सम्राट् तिड्. - मिड्. स्वयं उसके चरणों में पहुँचे । देखा वह तो तन-मन की सुधि भूले बस अन्तर्ध्यान में लीन है । सम्राट ने प्रार्थना की- "भगवन् ! चलिये ! धर्माचार्य का आसन सुशोभित कीजिये !"
भिक्षु की समस्त आकांक्षाएं समाप्त हो चुकी थी । उसने धर्मग्रन्थों के सच्चे रहस्य को पालिया था । मंदमित के साथ बोला- 'राजन् ! सद्धर्म उपदेश का नहीं, आचरण का विषय है । उपदेश में निरा अहंकार है, आचरण में आनन्द है । अब मुझे किसी 'पर' की आकांक्षा नहीं । भगवान का एक ही वाक्य मेरे हृदय को प्रकाशित कर गया है- अप्प दीपो भव स्वयं अपने दीपक
बनो ।
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