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________________ राजा का आदर्श १८६ राजा के इस आदर्श का प्रतिबिम्ब देखिए एकबार जयपुर के राजा सवाईजयसिंह महलों की छतपर घूमते हुए उषःकाल की रमणीय छटा देख रहे थे । सहसा उनकी नजर सामने की छत पर पड़ी, जैसे सांप पर पैर पड़ गया हो, राजा तुरंत चौंक कर उल्टेपांव नीचे उतर आये । उनके चेहरे पर एक भारी विषाद की मलिनरेखा थी। राजपंडित को बुलाकर महाराज ने पूछा-"यदि कोई पिता अपनी तरुण पुत्री को अकस्मात् नग्न देखले तो उसे क्या प्रायश्चित्त करना चाहिए ?" पंडित ने निवेदन किया-"महाराज ! इस प्रकार का विधान तो मैंने कहीं देखा नहीं, फिर भी धन-धान्यादि से उसे संतुष्ट कर पश्चात्ताप कर लेना चाहिए।" राजा ने अपने व्यक्तिगत कोश से ५ हजार रुपए नगद देते हुए मंत्री से कहा-"हमारे महल के पड़ोस में जो अमुक घर है, उसमें रहनेवाली महिला को यह धनराशि देकर हमारी ओर से क्षमा मांगते हुए कहना-"महाराज ने छतपर चढ़ते हुए आपकी ओर भूल से दृष्टि उठाली, इस असावधानी के कारण उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ। प्रायश्चित्त स्वरूप ये ५ हजार रुपए भेजे हैं और पुत्री को विश्वास रहे कि भविष्य में बिना सूचना के कभी भी महाराज छतपर नहीं आयेगें।'' ___ मंत्री राजा की गंभीर मुखमुद्रा को देख रहा था कि राजा ने आगे कहा-"मंत्रिवर ! प्रजा हमारी संतान है, Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003199
Book TitlePratidhwani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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