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अप्पदीपो भव
भगवान महावीर का एक वचन हैजे अणण्णदंसी से अणण्णारामे
-आचारांग सूत्र जो अनन्यदर्शी अर्थात् आत्मा के सिवाय और किसी को नहीं देखता है, वह आत्मा के सिवाय अन्यत्र कहीं नहीं रमता। ___ यह सत्य है कि आत्मद्रष्टा आत्मा में ही रमता है,
और बाह्यद्रष्टा बाहर में भटकता रहता है। बाहर में देखने वाले की आकांक्षाएं-धन, वैभव, सत्ता और यश पर मंडराती है, पर जब दृष्टि बाहर से मुड़कर भीतर को चली जाती है, तो अपने आप में सब कुछ पा लेती है। वह सचमुच में अप्पदीप-आत्मदीप---अपना दीपक स्वयं बन जाता है।
एक कम्बोडियन बौद्ध कथा है। कम्बोज के सम्राट तिङ-मिड्. की राजसभा में एक बौद्ध भिक्ष आया और सम्राट् से कहने लगा-महाराज ! मैं त्रिपिटकाचार्य है।
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