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________________ निस्पृहता का अभ्यास १४६ गंगा के किनारे बैठ कर एक हाथ में रुपया (चाँदी का सिक्का) लेते और एक हाथ में गंगा की मिट्टी । मिट्टी को हाथ में लेकर कहते-यह मिट्टी है, यह अन्न पैदा कर संसार को देती है, जगत् का पालन करती है। दूसरे हाथ में रुपया लेकर कहते-यह टाका है, इससे लोग अन्न खरीदते हैं। पर यह अन्न पैदा नहीं कर सकता। और फिर दोनों को समान भाव से कहते-'मिट्टी-टाका' 'टाका-मिट्टी' मिट्टी और टाका में कोई भेद नहीं। मिट्टी टाका समान है। लोग परमहंस से इस प्रकार के जाप का कारण पूछते, तो परमहंस ने कहा-मिट्टी और टाका में भेद नहीं देखना यही तो मन की समवृत्ति है और इस समवृत्ति की साधना के लिए मन से दोनों के भेद की कल्पना मिटनी चाहिए। यह भेद कल्पना मिट गई कि निस्पृहता का अभ्यास सध गया।" वास्तव में साधक के मन की इतनी ऊंची स्थिति बने कि वह सोना और मिट्टी, मिट्टी और टाका में कोई भेद अनुभव न करें, मिट्टी के स्पर्श में जो सामान्य मनःस्थिति रहती है, सोने और रुपये के स्पर्श में भी उसी प्रकार की सामान्य स्थिति बनी रहे-तो निस्पृहता का सच्चा अभ्यास हुआ समझना चाहिए। Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003199
Book TitlePratidhwani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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