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प्रतिध्वनि
जैसे सुनार चाँदी के मैल को धीरे-धीरे साफ करता रहता है, वैसे ही बुद्धिमान साधक आत्मा के मल को, थोड़ा-थोड़ा करके साफ करता रहे, जिससे कि मन उज्ज्वल एवं निर्मल बन जाय ।
साधक को मनको प्रतिक्षरण शुभ कामनाओं से निर्मल करते ही रहना चाहिए । यदि उसके प्रति उपेक्षा कर दी गई तो जैसे निकम्मी तलवार जंग खा जाती है, और अनुपयोगी वस्त्र पड़े-पड़े मलिन हो जाते हैं वैसे ही शुभभाव शून्य मन पाप से भर जाता है ।
रामकृष्ण परमहंस से एक श्रद्धालु ने पूछा- आप तो पहुँचे हुए योगी हैं, फिर ध्यान आदि प्रतिदिन करते रहने की क्या जरूरत हैं ?
परमहंस ने अपना कमंडलु हाथ में लेते हुए बताया- 'यह कितना साफ है, चमक रहा है न ? क्यों ?' स्वयं ही प्रश्न का समाधान देते हुए आगे कहा - " मैं इसे प्रतिदिन साफ करता रहता है। यदि एक बार साफ करके रख दूं और फिर इसकी संभाल न करूँ तो क्या यह इतना स्वच्छ व चमकदार रह सकता है ? इसीप्रकार आत्मा को जो कि शरीर के साथ रह रहा है, साधना के द्वारा यदि शुद्ध व निर्मल नहीं किया जाय तो वह भी मलिन हो जाती है । मन को चांदी की भांति जितना मांजा जाय, उतना ही निर्मल रहता है।"
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