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प्रतिध्वनि
"ऊफ ! भिक्षुक होकर भी यह सब ? आखिर इतना पैसा कहाँ से आता है तुम्हारे पास?”
भिक्षक ने जरा हँसकर कहा - "महाराज ! इसमें रहस्य की क्या बात है ? रात में चोरी करता हूँ, दिन में जुआ खेलता हूं बस पैसे की क्या कमी ?"
राजा तो आश्चर्य में डूबा जा रहा था । भिक्षुक का वेष, और इतनी दुर्वृत्तियां ! शिकार, मद्य, मांस, वेश्यागमन, जुआ और चोरी ! आखिर सब दोष एक ही जगह आ गये ।
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राजा के आश्चर्य को भंग करते भिक्षुक ने कहा"महाराज ! ऐसा तो होता ही है, जब एक दोष आ जाता है तो सब दोष अपने आप आ जाते हैं। मैंने मद्यपान शुरू किया और धीरे-धीरे ये सब दोष आ गये अब छूटते नहीं ! इसीलिए तो कहावत है-छिद्र वनर्था बहुली भवन्ति - एक सुराख हजारों सुराख पैदा कर देता है । इसलिए प्रारम्भ में ही छोटे से छोटे दोष को बड़ा समझन चाहिए ।"
राजा को लगा, जैसे भिक्षुक ने एक रहस्य खोलकर रख दिया है। उसके सामने एक बहुत बड़ा उपदेश सुना दिया है, और सावधान करदिया है किसी भयंकर खतरे से ''''
कुछ दिन बाद कालिदास ने अनुभव किया, उसके नाटक का परिणाम सफल रहा, राजा भोज अपनी मर्यादा स्थिर हो गया है ।
में
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