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प्रतिध्वनि है, मौत को पूकारना भी आसान है, किन्तु मौत से प्यार करना-कठिन, बहुत कठिन है । दीर्घदर्शी भगवान महावीर ने यही तो कहा था-संसार में एक छोटे से छोटा जन्तु-कीड़ा और स्वर्ग का अधिपति इन्द्र-दोनों में ही जीने की आकांक्षा समान है-"अप्पियवहा, पिय जीविणो"-उन्हें वध-मृत्यू अप्रिय है, जीवन प्रिय है, इसलिए किसी का जीवन मत लूटो।
एक पुरानी कहानी है,कई बार संतों के मुंह से सुनो है। एक लकड़हारा बड़ा दुःखी था, लकड़ियां काटतेकाटते हाथ भी लकड़ी हो गए थे, सिर पर भार ढोते-ढोते केश और टाट घिस गयी थी। बचपन से बुढ़ापा आ गया, हिलते-चलते पांव डगमगाने लगे थे, फिर भी विचारे की दशा नहीं बदली, अब भी उसे एक मुट्ठी चना तभी मिलता जब लकड़ियां काटकर ले जाता, उन्हें बेचता। जीवन की इस कठोर यातना से वह हार गया। एक दिन भारी बांधते-बांधते उसे अपनी दुर्दशा पर रोना आ गया, और वह दुःखावेग में पुकार उठा- "हे परमात्मा ! मुझे इन कष्टों को झेलते रहने के लिए इतनी लंबी जिंदगी क्यों दे दी ! क्या मेरा मृत्यु पत्र तुम्हारी फाइल में कहीं दब गया ? मुझे क्यों नहीं उठाते-इस जिन्दगी से मौत बेहतर है"!"
कहते हैं लकड़हारे ने जैसे ही पुकारा पीछे से एक अत्यंत ठंडा पंजा उसके गले पर पड़ा । वह चीख उठाकौन है ?
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