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________________ तुम कौन ? १०६ सन्यासी ने कहा--"स्वयं पर ही ।" सम्राट ने बात को दुहराया - 'अच्छा ! सम्राट ! तो मैं कौन हैं ?” 'तुम एक गुलाम !' 'किस का ?' 'अपने आपका ?' सम्राट आगबबूला हो उठा। उसने सन्यासी को पकड़ कर जेल में बन्द कर दिया और सुबह राज सभा में उसके रात्रि के व्यवहार पर रोष प्रकट करते हुए पूछा - 'तुमने स्वयं को सम्राट कँसे कहा ?' सन्यासी ने उत्तर दिया- " मैंने अपनी वासना और इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर ली है । तुमने मुझ पर क्रोध किया और जेल में बन्द कर दिया तब भी मेरे मन में तुम्हारे लिए कोई रोष नहीं है किन्तु तुम सम्राट होकर भी अपने क्रोध को नहीं जीत सके, थोड़ा-सा छू जाने पर भी यों बौखलागए जैसे सांप छू गया हो, तो फिर सम्राट कहां हुए ? अपनी वासना और विकारों के तो गुलाम ही रहे । " । सम्राट ने सन्यासी के सामने सिर झुका लिया । वास्तव में जिसने अपने अहंकार और क्रोध को जीत लिया वही सच्चा विजेता है । शंकराचार्य से किसी ने पूछा - "विश्व विजेता की Jain Education Internationa For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003199
Book TitlePratidhwani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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