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प्रतिध्वनि
एक बार बादशाह के एक शाही झंडे ने राजमहलों के द्वार पर लगे पर्दे से कहा----'भाई ! तुम तो बड़े भाग्यशाली हो । देखो, तुम और मैं दोनों एक ही कपास से पैदा हुए हैं, अपने माता-पिता एक हैं, दोनों का स्वामी भी एक है, किन्तु दोनों के भाग्य में कितना अन्तर है । मैं सदा हवा में थपेड़े ग्वाता रहता हूँ। दिन-रात दौड़ लगाते दम-भर आता है, जंगल-जंगल घूमना पड़ता है, कठोर हाथों में, बाँस की शूली पर टंगे-टंगे, युद्ध के मैदानों में शहनाइयों से मेरे तो कान बहरे हए जा रहे हैं, कितना कठिन और कष्टमय है मेरा जीवन ! धूप, आँधी, वर्षा और सर्दी की मारों से कचूमर निकला जाता है । क्षग भर का चैन नहीं । एक तुम हो, कि रात-दिन महलों की शीतल छाया और ठंडी हवा में आगम से टहल रहे हो। गज-रानियों और दासियों के कोमल हाथों का म्पर्श पा कर मचल रहे हो । मधुर गीतों की झंकार में मस्त हुए झूम रहे हो । कितना सुखमय तुम्हारा जीवन !'
पर्दे ने सुख की ठंडी सांस लेकर कहा-'भाई ! इस का एक छोटा सा कारण है !'
भडे ने हवा में शिर उठाते हुए पूछा-'क्या ?'
पर्दे ने धीमे से कहा- 'तुम हमेशा अपना सिर अहंकार से ऊपर उठाये चलते हो, जबकि मेरा सिर नम्रता के साथ हमेशा नीचे झुका रहता है ।'
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