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________________ हे नाथ ! आपने सम्बन्धियों के आग्रह से विवाह करना तो स्वीकार कर लिया, पर आप अपने श्वसुर के द्वार पर आने के पहले ही लौट गये। इस प्रकार तो चार वर्ष के बच्चे तक को भी धोखा नहीं दिया जाता है। एतत्सर्व गुरुजनमनोमोदनाथ यदि त्वं, तत्त्वं विन्दुः स्वयमकुटिलं स्वीचकर्थ प्रकामम् । इत्थङ्कारं कतिचन सभा मन्मुदे दारकर्म, स्वीकृत्यैतत् किमुपजरसं नो तपस्तप्यसे स्म ॥४॥२४॥ हे नाथ ! यदि बाल-क्रीड़ाएं तथा अन्य पराक्रम लीलाएँ आपने केवल अपने गुरुजनों के मन को प्रसन्न करने के लिए ही की, तो मेरी प्रसन्नता के लिए आप विवाह क्यों नहीं करते। जब वृद्धावस्था आ जाये तब आप तपस्या करने चले जाइयेगा। वह शोक की अन्तिम अभिव्यञ्जना करती हुई कहती है श्रीमानहन्नितरजनवन्मन्मथस्य व्यथाभिः, कि बाध्यतेत्यखिलजनतां मा रिरेकाम कामम् ! ध्यात्वैवं चेत्तपसि रमसे तत्प्रतिज्ञातलोपे, कस्तामत्र त्रिभुवनगुरो ! रेकमाणां निषेद्धा ? ॥४॥२०॥ हे नाथ ! यह कामदेव अपने विषम बाणों से मुझे सता रहा है । अपने तिरस्कार की ज्वाला मुझे व्याकुल कर रही है अपनी इस अचेतावस्था में यदि मैं किसी खाई में कूद पडूं तो क्या होगा? हे नाथ ! मुझ में किसी दोष का आरोप करके यदि छोड़ा होता तो उचित भी था । परन्तु इस तरह तो आप पर एक निर्दोष स्त्री के परित्याग का कलंक लगेगा। बिना किसी बहाने यमराज भी तो प्राणियों को नहीं मारता। इस प्रकार काव्य में विरह-भावना की अभिव्यञ्जना हुई है । विचारतारतम्य और रस की दृष्टि से काव्य बड़ी उच्च कोटि का है। कवि ने पद-पद पर श्लिष्ट वाक्य रचना और अलंकारों की भरमार से काव्य को दुरूह अवश्य बना दिया है। अलंकारों के बाहुल्य से भाषा और भाव दबे से हैं । कवि ने वानस्पत्याः कलकिशलयैः कौशिकाभिः प्रवालैः ।। २।२।। पद्य के पूर्वार्द्ध में अपह्न ति और रूपक एवं उत्तरार्द्ध में उत्प्रेक्षा और श्लेष का सुन्दर समायोजन किया है । प्रसाद गुण की रचना में कमी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003193
Book TitleJain Sahitya ke Vividh Ayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1981
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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