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मूल आधार यह हो सकता है कि कभी ये दोनों परम्पराएँ एक रही हों और उन दिनों का मूल स्रोत एक ही स्थल से प्रवाहित हुआ हो । आगम और त्रिपिटक साहित्य के एक-एक विषय को लेकर यदि तुल-नात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाए तो अनेक नये तथ्य आसानी से उजागर हो सकते हैं, किन्तु विस्तार भय से हम यहाँ संक्षेप में हो कुछ प्रमुख बातों पर चिन्तन करेंगे। शेष विषयों पर कभी अवकाश के क्षणों में चिन्तन किया जायगा ।
जहाँ तक आगम और त्रिपिटक साहित्य का प्रश्न है वहाँ तक दोनों ही परम्पराएं जन साधारण की भाषा को अपनाती रही हैं । त्रिपिटक साहित्य की भाषा पालि रही है तो जैन आगमों को भाषा अर्धमागधी प्राकृत रही है । दोनों ही महापुरुषों ने जन-जन के कल्याणार्थ उपदेश प्रदान किये।
ब्राह्मण दार्शनिक मीमांसकों ने वेद को सनातन मानकर उसे अपौरुषेय कहा है । नैयायिक - वैशेषिक आदि दार्शनिक उसे ईश्वर प्रणोत कहते हैं । दोनों का मन्तव्य है कि वेद को रचना का समय अज्ञात है । इसके विपरीत बौद्ध त्रिपिटक और जैन गणिपिटक पौरुषेय हैं । ये निराकार निरंजन ईश्वर द्वारा प्रणीत नहीं है और इनकी रचना के समय का भी स्पष्ट ज्ञान है ।
जैन साधना पद्धति का अंतिम लक्ष्य निर्वाण है अतः निर्वाग को दृष्टि से ही उसमें प्रत्त्येक वस्तु पर चिन्तन किया गया है। जबकि वैदिक परम्परा का मुख्य लक्ष्य स्वर्ग प्राप्ति था, उसी को संलक्ष्य में रखकर वेदों में विविध कर्मकाण्डों की योजना की गई है । ऋग्वेद के प्रारम्भ में धनप्राप्ति की दृष्टि से अग्नि की स्तुति की गई है जब कि आचारांग के प्रथम वाक्य में ही "मैं कौन हूँ, मेरा स्वरूप क्या है" इस पर चिन्तन किया गया है । सूत्र- कृताङ्ग के प्रारम्भ में भी बन्ध और मोक्ष की चर्चा की गई है । वहाँ पर स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि परिग्रह ही बन्धन है । जितना साधक ममत्व का परित्याग कर समत्व की साधना करेगा उतना ही वह निर्वाण की ओर कदम बढ़ायेगा । लक्ष्य की भिन्नता के कारण वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों में स्तुतियों को अधिकता . और आध्यात्मिक चिन्तन की अल्पता है । उपनिषद् साहित्य में आध्यात्मिक चिन्तन उपलब्ध होता है पर उसमें आत्म-चिन्तन के मार्ग का
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