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________________ ( २३ ) दिगम्बराचार्यों ने श्वेतांबरों के आगमों को प्रामाणिक नहीं माना। श्वेताम्बर दृष्टि से केवल दृष्टिवाद नामक बारहवां अंग ही विच्छिन्न हुआ जब कि दिगम्बर दृष्टि से सम्पूर्ण आगम साहित्य ही लुप्त हो गया। केवल दृष्टिवाद का कुछ अंश अवशेष रहा जिसके आधार से षट्खण्डागम की रचना हुई और उसी मूल आधार से अन्य अनेक मेधावी आचार्यों ने उन विषयों पर ग्रंथ लिखे। आत्मा और कर्म सम्बन्धी गहन चर्चा के ये ग्रंथ बहुत ही जटिल हो गये। श्वेताम्बर आगम साहित्य के समान विविध विषयों की विषद् चर्चाएँ दिगम्बर साहित्य में नहीं हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर आगम को समझने के लिए दोनों का तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है। दोनों ही परम्पराओं में अनेक प्रतिभासम्पन्न ज्योतिर्धर आचार्य हुए, जिन्होंने आगम साहित्य के एक-एक विषय को लेकर विपुल साहित्य का सजन किया। उस साहित्य में उन आचार्यों का प्रकाण्ड पांडित्य और अनेकान्त दृष्टि स्पष्ट रूप से झलक रही है। आवश्यकता है उस विराट साहित्य के अध्ययन, चिन्तन और मनन की। यह वह आध्यात्मिक सरस भोजन है जो कदापि बासी नहीं हो सकता। यह जीवन दर्शन है। प्राचीन मनीषी के शब्दों में यदि यह कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि “यदिहास्ति तदन्यत्र, यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्" आगम साहित्य में लोकनीति, सामाजिक शिष्टाचार, अनुशासन, अध्यात्म, वैराग्य, इतिहास और पुराण, कथा और तत्त्वज्ञान, सरल और गहन, अन्तः और बाह्य जगत् सभी का गहन विश्लेषण है जो अपूर्व है अनूठा है। जीवन के सर्वांगीण अध्ययन के लिए आगम साहित्य का अध्ययन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। भौतिक भक्ति के युग में पले-पोसे मानवों के अन्तर्मानस में जैन आगम साहित्य के प्रति यदि रुचि जाग्रत हई तो मैं अपना प्रयास पूर्ण सफल समझगा । इसी आशा के साथ लेखनी को विश्राम देता हूँ। संदर्भ १. आचारांग १।३।३ २. सुबालोपनिषद् ९ खण्ड ईशाद्यष्टोत्तर शतोपनिषद्, पृ० २१० ३. भगवद्गीता, अ. २, श्लो० २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003193
Book TitleJain Sahitya ke Vividh Ayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1981
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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