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कारुण्य, माध्यस्थ भावना का उल्लेख १३ है। तो मज्झिमनिकाय में सम्यग्दर्शन के साथ ही भावना का भी वर्णन आया है। मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा की भावना करने वाला आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त कर सकता है।
स्थानांग,१५ आवश्यक, व तत्त्वार्थसत्र ११७ आदि में इस बात को प्रतिपादित किया गया है कि व्रत ग्रहण करने वाले व्यक्ति को शल्य रहित होना चाहिए । शल्य वह है जो आत्मा को कांटे की तरह दुःख दे। उसके तीन प्रकार हैं
(१) माया शल्य-छल-कपट करना । (२) निदान शल्य- आगामी काल में विषयों की वांछा करना।
(३) मिथ्यादर्शन शल्य-तत्त्वों का श्रद्धान न होना। मज्झिमनिकाय १८ में तृष्णा के लिए शल्य शब्द का प्रयोग हुआ है और साधक को उससे मुक्त होने के लिए कहा गया है ।
आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में इन्द्रिय संयम की महत्ता बताते हुए कहा है कि रूप, रस, गन्ध, शब्द एवं स्पर्श अज्ञानियों के लिए आवर्त रूप हैं ऐसा समझकर विवेकी उनमें मच्छित नहीं होता। यदि प्रमाद के कारण पहले इनकी ओर झुकाव रहा तो ऐसा निश्चय करना चाहिए कि मैं इनसे बचूंगा- इनमें नहीं फसूंगा, पूर्ववत् आचरण नहीं करूंगा। ____मज्झिमनिकाय १९ में पांच इन्द्रियों का वर्णन है-चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और काय । इन पाँचों इन्द्रियों का प्रतिशरण मन है। मन इनके विषय का अनुभव करता है। __ पांच काम गुण है-(१) चक्षु विज्ञेय रूप (२) श्रोत विज्ञेय शब्द (३) घ्राण विज्ञेय गन्ध (४) जिह्वा विज्ञेय रस (१) काय विज्ञेय स्पर्श । १२० __ स्थानांग, भगवती आदि में नरक, तिथंच, मनुष्य और देव इन चार गतियों का वर्णन है।
मज्झिमनिकाय २१ में पांच गतियाँ बताई हैं । नरक, तिर्यग, प्रेत्यविषय, मनुष्य, देवता। जैन आगमों में प्रेत्यविषय और देवता को एक कोटि में माना है। भले ही निवासस्थान की दृष्टि से दो भेद किये गये हों पर गति की दृष्टि से वे दोनों एक ही हैं।
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