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________________ स्थानांग५० में इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात् भय, वेदनाभय, मरणभय और अश्लोकभय आदि सात भयस्थान बताये हैं तो अंगुत्तरनिकाय५१ में जाति, जन्म, जरा, व्याधि, मरण; अग्नि, उदक, राज, चोर, आत्मानुवाद-अपने दुश्चरित्र का विचार कि दूसरे मुझे दुश्चरित्र कहेंगे इसका भय, दंड, दुर्गति आदि अनेक भयस्थान बताये गये हैं। . समवायांगसूत्र में नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवताओं के आवास स्थल के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है । जैसे कि रत्नप्रभा पृथ्वी में एक लाख ७८ हजार योजन प्रमाण में ३० लाख नरकावास हैं। इसी प्रकार अन्य नरकवासों का भी उल्लेख है और देवों के आवास का भी वर्णन है। वैसे ही अंगुत्तर निकाय में नवसत्त्वावास माने हैं। उनमें सभी जीवों को विभक्त कर दिया गया है।५२ ये नवसत्त्वावास निम्न हैं प्रथम सत्तावास में विविध प्रकार के काय और संज्ञावाले कितने ही मनुष्य देव और विनिपातिकों का समावेश है। दूसरे आवास में विविध प्रकार की कायावाले किन्तु समान संज्ञावाले ब्रह्मकायिक देवों का वर्णन है। ___ तीसरे आवास में समान कायवाले किन्तु विविध प्रकार की संज्ञावाले अभास्वर देवों का वर्णन है । चतुर्थं आवास में एक सदृश काय और संज्ञावाले शुभ कृष्ण देवों का निरूपण है। पांचवें आवास में असंज्ञी और अप्रतिसंवेदो ऐसे असंज्ञ सत्त्व देवों का वर्णन है। छठे आवास में रूप संज्ञा, पटिघ संज्ञा और विविध संज्ञा से आगे बढ़कर जैसे आकाश अनन्त है । वैसे आकाशानंचायतन को प्राप्त हुए वैसे सत्त्वों का निरूपण है। ___ सातवें आवास में उन सत्त्वों का वर्णन है जो आकाशनंचायतन को भी अतिक्रमण करके अनंत विज्ञान हैं, ऐसे विञ्चाणनंचायतन को प्राप्त __ आठवें आवास में वे सत्त्व हैं जो कुछ भी नहीं हैं अकिञ्चायतन को प्राप्त हुए हैं। नवें आवास में वे सत्त्व हैं जो नवज्ञाना-सचायतन को प्राप्त हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003193
Book TitleJain Sahitya ke Vividh Ayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1981
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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