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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना . जैन पुराणों के अनुसार वह शूलपाणि यक्ष महावीर का परमभक्त उपासक बन गया। आस-पास के उजड़ते हए गाँव फिर बसने लग गए। सर्वत्र निर्भयता और दिव्य शांति छा गई। यह था प्रेम का चमस्कार, जिसने घृणा और क्रूरता को सद्भावना में बदल दिया ! विष के बदले अमृत ! आग के बदले जल :
श्रमण महावीर साधना-काल में कहीं किसी एकान्त वन्य प्रदेश में आश्रम बाँध कर नहीं बठे। उनकी साधना परिव्राजक की, भ्रमणशील भिक्षु की साधना थी। उन्होंने अनेक बार ध्यान साधना के लिए ऐसे स्थल चुने, जहाँ पर साधारण मनुष्य पहुँच नहीं पाता था, पहुँच जाता तो जीवित नहीं रह पाता था। महावीर ने घूम-घूम कर उन भयपूण स्थानों को अभय का रूप दिया । उन क्र र एवं दुष्ट व्यक्तियों का जीवन बदला और जनता के लिए अभय का मंगल मार्ग प्रशस्त किया।
एकबार वे कनखल ( दुइज्जन्तक आश्रम ) से श्वेताम्बिका की ओर जा रहे थे। मार्ग में एक सूनसान बियावान जंगल पड़ता था । इस जंगल में एक भयंकर दृष्टि-विष नाग रहता था, जिसके दृष्टिमात्र से दूर-दूर तक के हरे-नीले वृक्ष भी जल कर लूंठ हो गए थे। महावीर उसी नाग के बिल के पास जाकर समाधि लगाकर खड़े हो गए । क्रुद्ध नाग ने बलपूर्वक दंश मारा, पर समाधिस्थ महावीर के तन पर उसका कोई असर नहीं हुआ। नाग काट-काट कर हार गया, पर समाधि और शांति के समक्ष उसके घोर विष का कोई प्रभाव नहीं हुआ। अपनी अभूतपूर्व पराजय पर विचार करते-करते महानाग चंडकौशिक की अन्तश्चेतना जागृत हो गई, उसे अपने क्रोध पर भयंकर पश्चात्ताप हुआ। निरंतर विष उगलकर हरे-भरे वन प्रदेश को सूनसान जंगल बना देने की बात सोच-सोच कर वह अपने आप पर क्ष ब्ध होने लगा । नाग की बदली हुई मनःस्थिति को देखकर महावीर ने मधुर स्वर में पुकारा-"उवसमह भो ! चण्डकोसिया ! चण्डकौशिक नाग ! अब शांत हो जाओ ! क्षमा करो ! यह जीवन विष उगलने के लिए नहीं, अमृत बरसाने के लिए है।"
नाग को क्षमा और शांति का अमृत मिला, उसने विष उगलना छोड़ दिया । और वह वन प्रदेश फिर हरा-भरा आबाद हो उठा।
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