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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
है; उस उपकार के बदले में वह समाज को कुछ देता भी है। यदि कोई इस कर्त्तव्य को राह से विलग हो जाता है, तो वह एक प्रकार से उसकी असामाजिकता ही होगी। अत: प्रवृत्तिरूप धर्म के द्वारा समाज की सेवा करना-मानव का प्रथम कर्तव्य है, और इस कर्तव्य की पूर्ति में ही मानव का अपना तथा समाज का कल्याण निहित है। बौद्ध धर्म में अहिंसा-भावना : ___'आर्य' को व्याख्या प्रस्तुत करते हुए बौद्ध धर्म ने अहिंसाप्रिय व्यक्ति को आय कहा है। तथागत बुद्ध ने कहा है"प्राणियों की हिंसा करने से कोई आर्य नहीं कहलाता, बल्कि जो प्राणी को हिंसा नहीं करता, उसी को आर्य कहा जाता है १९ । सब लोग दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से भय खाते हैं। मानव दूसरों को अपनी तरह जानकर न तो किसी को मारे और न किसी को मारने की प्रेरणा करे । २० जो न स्वयं किसी का घात करता है, न दूसरों से करवाता है, न स्वयं किसी को जोतता है, न दूसरों से जीतवाता है, वह सर्वप्राणियों का मित्र होता है, उसका किसी के साथ वैर नहीं होता । २१ जैसा मैं हूँ वैसे ये हैं, तथा जैसे ये हैं वैसा मैं हूँ,-इस प्रकार आत्मसदृश मानकर न किसी का घात करे न कराए । २२ सभी प्राणी सूख के चाहने वाले हैं, इनका जो दण्ड से घात नहीं करता है, वह सुख का अभिलाषी मानव अगले जन्म में सुख को प्राप्त करता है ।२3 इस प्रकार तथागत बुद्ध ने भी हिंसा का निषेध करके अहिंसा की प्रतिष्ठा की है।।
१६. न तेन आरियो होति येन पाणानि हिंसति ।
अहिंसा सव्वपाणान, आरियोति पवुच्चति ॥ -धम्मपद १६३१५ २०. सव्वे तसन्ति दण्डस्स, सम्वेसं जीवितं पियं ।
अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ॥ -धम्मपद १०१ २१. यो न हन्ति न घातेति, न जिनाति न जापते ।
मित्त सो सव्व भूतेसु वेरं तस्स न केनचीति ॥ -इतिबुत्तक पृ० २० २२. यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं ।।
अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न धातये ।। -सुत्तनिपात, ३।३।७।२७ २३. सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन न विहिंसति ।
अत्तनो सुखमेसानो पेच्चसो लभते सुखं ॥ -उदान, पृ० १२
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