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श्रमण संस्कृति का अहिंसा दर्शन एवं विश्वधम-समन्वय
होने देना चाहिए, बल्कि उन्हें सदा अपने नियंत्रण में रखना चाहिए । शस्त्रास्त्रों का प्रयोग सुरक्षा एवं शांति की रक्षा के लिए मर्यादित तरीके से होना चाहिए। हर चीज के मूल में हित को भावना का होना परमावश्यक है। ऐसे में विज्ञान अहिंसा का सहचर सिद्ध हो सकता है, संहारक नहीं। मानव पहले मानव है, उसके पश्चात् और कुछ-इसका सदैव ध्यान रहना चाहिए ।
अहिंसा और राजनीति :
विश्व के महान् राजनेताओं ने समय-समय पर विज्ञानप्रदत्त विपुल एवं भयानक संहारक शस्त्रास्त्रों से संत्रस्त होकर, शांति का मार्ग अहिंसा के द्वारा खोजने का प्रयत्न किया है। उन्होंने यह तथ्य पाया है कि शाश्वत शांति युद्ध की विभीषिका एवं आणविक शस्त्रास्त्रों के संहारक प्रयोग में नहीं, बल्कि अहिंसा एवं सह-अस्तित्व में निहित है।
- भारत के प्रधानमन्त्री स्व. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अहिंसा को अपनी नीति में सदा महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। उनका पंचशील का निर्माण इस दिशा में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपलब्धि है। सन १९६१ में बेलग्रेड में हुआ आणविक विभीषिका के संरक्षणार्थ विश्व के विभिन्न राष्ट्रों का सम्मेलन भी, इस दिशा में गौरवपूर्ण प्रयास है। उक्त सम्मेलन में अहिंसा संबंधी सिद्धान्त को हो स्पष्ट करते हुए स्व. पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-"मानवता खतरे में है, हमें इसी पहल से सोचना है। यानी जो जरूरी सवाल है, उस पर पहले सोचें, और यह जरूरी सवाल है-युद्ध और शांति का। जब विश्व विनाश को ओर बढ़ रहा है, तो दूसरे सवाल गौण हैं।....
.."मुझे बड़ा ही ताज्जुब होता है कि महान् शक्तियाँ इसे इज्जत का प्रश्न बनाकर अपनी-अपनी बात पर दृढ़ हैं और यह इतनी महान और शक्तिशाली हैं कि शांतिवार्ता के लिए तैयार नहीं । मेरा विश्वास है कि यह एक गलत रुख है इसमें उनकी इज्जत का ही प्रश्न नहीं, बल्कि मानव जाति के भविष्य का भी प्रश्न है।"
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