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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
अपराधी को कारागार की निर्मम यंत्रणाओं से भी सुधारा नहीं जा सकता । प्रायः ऐसा होता है कि कारागार से अपराधी गलत कार्य करने की पहले से भी कहीं अधिक तीव्र भावना लेकर लौटता है। वह जरूरत से ज्यादा कड़वा हो जाता है, एक प्रकार से समाज का उद्दड, विद्रोही और बागी हो जाता है। फाँसी आदि के रूप में दिया जाने वाला प्राणदण्ड एक प्रका' से कानूनी हत्या नहीं तो और क्या है ? प्राणदंड का दंड तो सर्वथा अनुपयुक्त दंड है । कारण, भय के वश से भले ही कुछेक व्यक्ति उस प्रकार का अपराध करना छोड़ दें, किन्तु इससे उनके अन्दर में निहित अपराध को मनोवृत्ति तो समाप्त नहीं हो पाती। ऐसे में तो कभी-कभी सही न्याय भी नहीं हो पाता, और भ्रांतिवश निरपराध भी प्राणदंड का भागो हो जाता है। भगवान् महावीर ने अपने एक संदेश में नमि राजर्षि के वचन को प्रमाणित किया है कि कभी-कभी मिथ्या दंड भी दे दिया जाता है । मूल अपराधी साफ बच जाता है और बेचारा निरपराध व्यक्ति मारा जाता है-"अकारिणोऽत्थ वझंति, मुच्चई कारगो जरणो।" कल्पना कोजिए, इस स्थिति में यदि कभी निरपराध को प्राणदंड दे दिया जाए, तो क्या होगा? वह तो दुनिया से चला जाएगा, और उसके पीछे यदि कहीं सही स्थिति प्रमाणित हुई, तो न्याय के नाम पर उस निरपराध व्यक्ति के खून के धब्बे ही शेष रहेंगे ! रोगो को रोगमुक्त करने के लिए रोगी को ही नष्ट कर देना, कहाँ का बौद्धिक चमत्कार है ? अहिंसा-दर्शन इस प्रकार के दण्ड-विधान का विरोध करता है। उसका दृष्टिकोण है कि दण्ड देते समय अपराधी के साथ भी अहिंसा का दृष्टिकोण रखना चाहिए। उसे मानसिक रोगी मान कर उसका मानसिक उपचार होना चाहिए, ताकि वह भी एक सभ्य एवं सुसंस्कृत नागरिक बन सके। समाज के लिए उपयोगो व्यक्ति हो सके । ध्वंश महान् नहीं है, निर्माण महान् है। अपराधी से अपराधी व्यक्ति के पास भी एक उज्ज्वल चरित्र होता है, जो कि कछ वैयक्तिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के कारण या तो दब जाता है, अथवा अविकसित रह जाता है। अत: न्यायालय के बौद्धिक वर्ग को अहिंसा के प्रकाश में दण्ड के ऐसे उन्नत, सभ्य एवं सुसंस्कृत मनोवैज्ञानिक तरीके खोजने चाहिएँ, जिनसे अपराधियों का सूप्त उज्ज्वल चरित्र सजग होकर, समाज के लिए उपादेय सिद्ध हो सके।
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