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श्रमण संस्कृति का अहिंसा दर्शन एवं विश्वधर्म-समन्वय अहिंसा का अर्थ : _ अहिंसा के विषय में आजतक जितना लिखा गया है. शायद हो किसो अन्य विषय पर इतना लिखा गया हो। पर, इसके साथ हो जितनो भ्रांतियाँ अहिंसा के सम्बन्ध में आज तक हुई हैं, और किसी विषय में उतनी नहीं हुई। इस विरोधात्मक स्थिति का एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक कारण है।
वस्तुत: जो सूक्ष्म है, यदि उसे स्थल बना दिया जाता है, तो उसकी आत्मा समाप्त हो जाती है। यही बात अहिंसा के सम्बन्ध में भी है। अहिंसा मात्र बाह्य व्यवहार का स्थूल विधि-निषेध नहीं है, बल्कि अंतर चेतना का एक सूक्ष्म भाव है। किंतु दुर्भाग्य से कुछ ऐसी स्थिति बनती गई कि अहिंसा का सूक्ष्मभाव निरंतर क्षीण होता गया और उसको औघबुद्धि से मात्र स्थूल व्यवहार का-दिखाऊविधि-निषेधों का रूप दे दिया गया। फलतः अहिंसा की ऊर्जा और आत्मा एक प्रकार से समाप्त ही हो गई। जब किसी सिद्धान्त की ऊर्जा एवं आत्मा समाप्त हो जाती है, तो वह निष्प्राण तत्त्व जीवन को तेजस्वी नहीं बना सकता। वह जीवन की समस्याओं का सही समाधान नहीं खोज सकता और वह स्वयं ही एकदिन एक समस्या बन जाता है। क्या स्थूल व्यवहार से सम्बन्धित अहिंसा के सम्बन्ध में भी ऐसा ही नहीं हुआ है ? पिछली कितनी ही सहस्राब्दियों से हमने अहिंसा की महान धर्म के रूप में उदघोषणा की है। अहिंसा को जीवन का परम सत्य मानकर उसकी उपासना की है। सामाजिक, आध्यात्मिक एवं राजनीतिक जीवन की सुरक्षा का आधार अहिंसा को माना है, तथा इसे विश्वव्यापी सिद्धान्त के रूप में हजारों वर्षों से मान्यता दी है। हजारों वर्षों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसके महत्त्व की चर्चा-परिचर्चा होती आरही है। परन्तु प्रश्न है, इस सबकी फलनिष्पत्ति कहाँ है ? हम अब तक अहिंसक समाज की संरचना क्यों नहीं कर पाए ? इस प्रश्न के दो ही उत्तर हो सकते हैं । प्रथम यह कि जिस अहिंसः तत्त्व की हम बात करते हैं, वह केवल बौद्धिक व्यायाम भर बनकर रह गया है। ऐसा लगता है, जैसे वह किसी कल्पना लोक का कोई अलौकिक तत्त्व है, जिसका धरती की दुनिया के साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है। गलत समस्या के आस-पास हजारों
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