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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना एक दूसरे स्थान पर भी आचार्य हरिभद्र ने कहा है -"मेरा न कपिल पर द्वष है और न महावीर पर अनुराग है। मैं तो उसी की बात को स्वीकार करता हूँ, जो तर्क-संगत, युक्तियुक्त और जीवनोपयोगी हो।" श्रद्धापूर्वक तर्क और तर्कपूर्वक श्रद्धा से ही हमारे जीवन का विकास हो सकता है। तर्कशून्य श्रद्धा अन्ध-विश्वास की ओर ले जाती है, श्रद्धाशून्य तर्क मनुष्य को सीमाहोन अनन्त आकाश में उड़ाता है। यही कारण है कि जीवन में श्रद्धा और तर्क दोनों को श्रमण-दर्शन में समान अधिकार प्राप्त हुआ है।
अहिंसा और अपरिग्रह की जन-जीवन में जितनी आवश्यकता आज है, उतनी शायद पहले कभी न रही होगी। अहिंसा का अर्थ हैप्रेम एवं प्रीति, और अपरिग्रह का अर्थ है-अनासक्ति अथवा इच्छाओं का सीमाकरण । आज के जन-जीवन में हिंसा और परिग्रह का जो नग्न ताण्डव नृत्य हो रहा है, उसने मानवता की जड़ों को हिला दिया है। आज का मानव, फिर भले ही वह किसी भी देश का, किसी भी जाति का, किसी भी वर्ग का क्यों न हो, शांति की अभिलाषा रखता है, किन्तु आज को विषम परिस्थिति में उसे कहीं पर भी शान्ति नजर नहीं आ रही है। किसी यूग में मानव ने विभिन्न सम्प्रदायों और पन्थों को जन्म दिया था, फिर उसने उनका संघर्ष भो देखा, जिसका मौलिक समाधान उसे महावीर के अनेकान्तवाद में मिला । आज के समाज की विषम समस्याओं को सुलझाने का उपाय एकमात्र अहिंसा और अपरिग्रह ही हो सकता है। मध्य युग का मानव यदि पन्थों से परेशान था, तो इस अणुयुग का मानव राजनीति के पन्थों और सम्प्रदायों से परेशान और हैरान बन चुका है। समाजवाद, साम्यवाद, सर्वोदयवाद और दूसरे-दूसरे राजनीतिक दल आज समाज की विषमताओं को दूर करने की घोषणा तो करते हैं, पर उसे दूर करने में वे सभी विफल रहे हैं। मेरा विश्वास है, कि यदि दुनिया के सभी पन्थों और राजनीतिक दलों को मिटा दिया जाए और आज का समग्र मानव समुदाय यदि सच्चे हृदय से अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह को स्वीकार कर ले, तो उसके जोवन को व्याकूल बनाने वालो अशान्ति दूर हो सकती है और उसका वर्तमान जीवन शान्त, सुन्दर और मधुर बन सकता है। भगवान महावीर के धर्म का, दर्शन का और संस्कृति का सार इन तीन शब्दों में ही है-अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह । *
-पं० विजयमुनि, शास्त्री, साहित्यरत्न
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