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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
___जैन शब्द जिन शब्द पर से बना है, जो जिन का उपासक है, वह जैन है। राग एवं द्वेष आदि विकारों को सर्वथा जीत लेना ही जिनत्व है । जो राग-द्वेष रूपी विकारों को जीतने के लिए प्रयत्नशील है, कुछ को जीत चुका है, और कुछ को जीत रहा है, वस्तुतः वही जैन है। निजत्व की परिधि से निकल कर जिनत्व को ओर अग्रसर होने वाला साधक, आत्म-साधक कहा जाता है। इसका अभिप्राय यही है कि निजत्व में जिनत्व की प्रतिष्ठा करना ही जैनत्व है। जब तक साधक अपने स्वरूप को न समझे और अपने को जीतने का प्रयत्न न करे तब तक उसकी साधना विपरीत दिशा की साधना कही जाती है। जैन-दर्शन : ___ भारतीय-दर्शनों में जैन-दर्शन की अमूल्य देन अनेकान्तवाद है। जैसे-वेदान्त-दर्शन का चरम विकास ब्रह्मवाद हुआ है, सांख्य-दर्शन का चरम विकास परिणामवाद में हआ है, और जिस प्रकार बौद्धदर्शन का चरम विकास विज्ञानवाद एवं शून्यवाद में हआ है, वैसे हो जैन-दर्शन का चरम विकास अथवा चरम परिणति अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद रहा है । अनेकान्तवाद का आधार नयवाद है, और स्याद्वाद का आधार सप्तभंगीवाद । अनेकान्त एक दृष्टि है, और उस अनेकान्तमयी दृष्टि को जिस भाषा-पद्धति के द्वारा अभिव्यक्ति मिलती है, उसे स्याद्वाद कहा जाता है। भारतीय-दर्शनों में अनेकान्तवाद जैन-दर्शन की एक अपूर्व देन है। इसके द्वारा सभी दार्शनिक संघर्ष समाप्त किये जा सकते हैं। अनेकान्त का आधार केवल दार्शनिक ही नहीं, अपितु अनेकान्त के द्वारा सामाजिक, पारिवारिक, राजनीतिक और राष्ट्रीय संघर्षों को भी मिटाया जा सकता है। जैन-दर्शन वस्तु को एक रूपात्मक या एक धर्मात्मक नहीं मानता, बल्कि अनन्त धर्मात्मक मानता है। किसी एक अपेक्षा से वस्तु के एक रूप को ही जाना जा सकता है, समग्र रूप को नहीं। जैसे-आम्रफल में रूप, रस, गंध एवं स्पर्श आदि सभी धर्म विद्यमान हैं, परन्तु हम चर्मचक्ष के द्वारा उसके रूप एवं आकार का ही ज्ञान कर सकते हैं, उसके अन्य धर्मों का नहीं। यह सत्य है कि रूप भी आम्रफल का एक धर्म है। परन्तु रूपमात्र को ही समग्र आम्रफल नहीं कहा जा
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