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________________ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना सत्ता से किसी को इन्कार नहीं है। तत्त्व के प्रति जो अडिग एवं अटूट आस्था है, वस्तुतः वही धर्म एवं संस्कृति है। आस्था के रूप विभिन्न होने पर भी समग्र भारतीय-दर्शनों की आस्था का आधार एक ही रहा है, और वह है-तत्त्व, सत्य एवं तथ्य । भारतीयदार्शनिकों ने दर्शन को, जीवन का अभिन्न अंग माना है। उनकी मान्यता के अनुसार जीवन कभी दर्शन से . शून्य नहीं हो सकता। दशन ही जीवन है। जीवन और दर्शन ___ जीवन में दर्शन अथवा चिन्तन उतना हा आवश्यक है, जितना भौतिक जीवन को टिकाने के लिए श्वास और प्रश्वास। प्रत्येक व्यक्ति, फिर भले ही वह कितना ही अपढ़ एवं गॅवार हो, किन्तु अपने आप में वह अवश्य ही दार्शनिक होता है। जब मानवीय मन के स्तर पर जीवन और जगत् के प्रश्न उभर कर आते हैं, अथवा जब वह आत्मा और परमात्मा की बात करता है, तब क्या वह अनायास ही दर्शन को अभिव्यक्ति नहीं देता ? इस अर्थ में मैं दर्शन को जीवन का एक अभिन्न अंग स्वीकार करता हूँ। पाश्चात्य दार्शनिक बेकन ने कहा था - "दर्शन में हमें सबसे पहले मस्तिष्क की शक्ति को ढूढ़ने के लिए कहा जाता है। बाकी चीजें या तो एकत्रित कर दी जाएँगी या उनकी कोई जरूरत ही नहीं रहेगी।" फ्रान्स के महान् दार्शनिक डेकार्ट ने कहा था-"मनुष्य जितना जान सकता है, वह ज्ञान तथा अपने जीवन के आचरण, अपने स्वास्थ्य की रक्षा, और सभी कलाओं के आविष्कार का पूर्ण ज्ञान दर्शन है।" लारवनित्ज ने कहा था-'दर्शन का मुख्य काम ज्ञान के मौलिक सिद्धान्तों का आविष्कार करना है ।" व्यूरो के शब्दों में - 'केवल गम्भीर एवं उच्च विचारों का पोषण अथवा किसी बोझिल विचारधारा से संबद्ध होना ही दार्शनिकता नहीं है, बल्कि दार्शनिकता का अर्थ है-ज्ञान अथवा विद्या प्रेम । और उसी ज्ञान तथा विवेक के साथ जीवनयापन । सादगी, स्वच्छता एवं आस्थामय जीवन बिताना ही सच्ची दार्शनिकता है।" जर्मनी के महान् दार्शनिक हेगल ने कहा था-"दर्शन का काम है-प्रकृति और अनुभव के द्वारा सारा जगत् जैसा है, उसे वैसा ही जानना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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