________________
- श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं-जैसे ग्वालिन मंथन करने की रस्सी के दो छोरों में से कभी एक को और कभी दूसरे को खींचती हैं। उसी प्रकार अनेकान्त पद्धति भी कभी एक धर्म को प्रमुखता देती है और कभी दूसरे धर्म को। इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ हुआ, विभिन्न दृष्टिकोणों का बिना किसी पक्षपात के तटस्थ बुद्धि से समन्वय करना। जो काय एक न्यायाधीश का होता है, वही कार्य विभिन्न विचारों के समन्वय के लिए स्याद्वाद का है। जैसे न्यायाधीश वादी और प्रतिवादी के बयानों को सुनकर जाँचपड़ताल कर निष्पक्ष न्याय देता है, वैसे ही स्यादवाद भी विभिन्नविचारों में समन्वय करता है । - समता का भव्य भवन अनेकान्त और अहिंसा को भित्ति पर आधारित है। जब जीवन में अहिंसा और अनेकान्त का मूर्त रूप स्थापित हो जाता है, तब जीवन में समता का मधुर संगीत झंकृत होने लगता है। श्रमण संस्कृति का सार यही है कि जीवन में अधिकाधिक समता को अपनाया जाए और 'तामस' विषमभाव को छोड़ा जाए। 'तामस' समता का ही उलटा रूप है। समता श्रमण संस्कृति की साधना का प्राण है और आगम साहित्य का नवनीत है। भारत के उत्तर में जिस प्रकार चांदनी की तरह चमचमाता हुआ हिमगिरि का उत्तग शिखर शोभायमान है, वैसे ही श्रमण संस्कृति के चिन्तनमनन के पीछे समत्व योग का दिव्य और भव्य शिखर चमक रहा है। श्रमण संस्कृति का यह गम्भीर आरोष रहा है - समता के अभाव में आध्यात्मिक उत्कर्ष नहीं हो सकता, और न जीवन में पूर्ण शान्ति ही प्राप्त हो सकती है,भले ही कोई साधक उग्र से उग्र तपश्चरण क्यों न कर ले। भले ही समस्त आगम साहित्य को कण्ठाग्र ही क्यों न कर ले । भले ही उसकी वाणी में द्वादशांगों का स्वर क्यों न मुखरित हो जाए। यदि उसके आचरण में, वाणी में, और मन में समता को सुरसरिता प्रवाहित नहीं हो रही है, तो उसका समस्त क्रियाकाण्ड और आगमों का परिज्ञान प्राणरहित कंकाल की तरह है। आत्मविकास की दृष्टि से उसका कुछ भी मूल्य नहीं है । आत्मविकास की दृष्टि से जीवन के कण-कण में, मन के अणु-अणु में समता की ज्योति जगाना आवश्यक है। साम्यभाव को जीवन में साकार रूप देना ही श्रमण संस्कृति की आत्मा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org