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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना भव्य भावना उसमें अठखेलियाँ करती हैं। श्रमण शब्द का मूल समण है । समण शब्द 'सम' शब्द से निष्पन्न है। जो सभी जीवों को अपने तुल्य मानता है, वह समण है। जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को दु:ख प्रिय नहीं है। इस समता को भावना से जो स्वयं किसी प्राणी का वध नहीं करता और न दूसरों से करवाता है, वह अपनी सममति के कारण समण कहलाता है।
जिसके मन में समता की सुरसरिता प्रवाहित होती है, वह न किसी पर द्वेष करता है, और न किसी पर राग ही करता है, अपितु अपनी मनःस्थिति को सदा सम रखता है। इस कारण वह समण कहलाता है।
जिसके जीवन में सर्प के तन को तरह मृदुलता होती है, पर्वत की तरह जिसके जीवन में स्थैर्य होता है, अग्नि की तरह जिसका जीवन प्रज्वलित होता है, समुद्र की तरह जिसका जीवन गंभीर होता है, आकाश की तरह जिसका जीवन विराट होता है, वृक्ष की तरह जिसका जीवन आश्रयदाता है, मधुकर की तरह जिसकी वृत्ति होती है, जो अनेक स्थान से मधु को बटोरता है, हरिण की तरह जो सरल होता है, भूमि की तरह जो क्षमाशील होता है, कमल की तरह जो निर्लेप होता है, सूर्य की तरह जिसका जीवन तेजस्वी होता है, और पवन की तरह जो अप्रतिहत विहारी होता है, वह समण है। :: समण वह है जो पुरस्कार के पूष्पों को पाकर प्रसन्न नहीं होता और अपमान के हलाहल को पाकर खिन्न नहीं होता, अपितु सदा मान और अपमान में सम रहता है।
आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर समण के साथ समता का सम्बन्ध जोड़ कर यह बताया गया है कि समता ही श्रमण संस्कृति का प्राण है।
उत्तराध्ययन में कहा है-सिर मुडा लेने से कोई समण नहीं होता, बल्कि समता का आचरण करने से ही समण होता है।
सूत्र कृतांग में समण के समभाव की अनेक दृष्टियों से व्याख्या करते हुए लिखा है-मुनि को गोत्र-कुल आदि का मद न कर, दूसरों
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