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४२२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा सद्बोध- सन्देश को अपनाकर, अपना जीवन-पथ आलोकित बना सकते हैं।
सन् १९०५ में उपमिति-भव-प्रपंच कथा का मूल डॉ. हरमन जैकोबी ने "बंगाल रोयल एशियाटिक जनरल" में प्रकाशित करना प्रारंभ किया । यह कार्य पहले डॉ० पीटर्स ने प्रारम्भ किया था। उन्होंने ६६-६६ पष्ठों के तीन भाग प्रकाशित किये । उसके पश्चात् डॉ. पीटर्स का निधन हो गया। उस अपूर्ण कार्य को पूर्ण करने के लिए डॉ० जैकोबी (बोन) को कार्यभार संभलाया गया। उन्होंने द्वितीय प्रस्ताव को पुनः मुद्रित करवाया और सम्पूर्ण ग्रन्थ १२४० पृष्ठों में सम्पन्न हुआ। उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ पर मननीय प्रस्तावना भी लिखी । इस ग्रन्थ रत्न को प्रकाशित करने में उन्हें लगभग १६ वर्ष का सयय लगा।
सन् १९१८ में श्री देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धारक ग्रन्थ माला, सूरत से उपमिति-भव-प्रपंच कथा का पूर्वार्द्ध प्रकाशित हुआ सन् १९२० में उसका उत्तरार्द्ध प्रकाशित हुआ। यह ग्रन्थ पत्राकार प्रकाशित है।
संस्कृत भाषा में निर्मित होने के कारण सामान्य जिज्ञासु पाठक इस ग्रन्थ रत्न का स्वाध्याय कर लाभान्वित नहीं हो सकता था, अतः विज्ञों के मस्तिष्क में इस ग्रन्थ के अनुवाद की कल्पना उद्बुद्ध हुई । श्रीयुत् मोतीचन्द गिरधरलाल कापड़िया ने नौ वर्ष की लघुवय में कुंवरजी आनन्दजी से यह ग्रन्थ सुना था, तभी से वे इस ग्रन्थ की महिमा और गरिमा से प्रभावित हो गये। उन्होंने मन में यह संकल्प किया कि यदि इसका अनुवाद हो जाये तो गुजराती भाषा-भाषी श्रद्धालु वर्ग लाभान्वित होंगे, उन्हें नया आलोक प्राप्त होगा। कथा के माध्यम से द्रव्यानुयोग की गुरु-गम्भीर ग्रन्थियाँ इस ग्रन्थ में जिस रूप से सुलझाई गई है, वह अपूर्व है । अतः उन्होंने 'श्री जैन धर्म प्रकाश' मासिक पत्रिका में सन् १६०१ में धारावाहिक रूप से इस कथा का गुजराती में अनुवाद कर प्रकाशित करवाना प्रारम्भ किया । पर, अनुवादक अन्यान्य कार्यों में व्यस्त हो गया और वह धारावाहिक कथा बीच में ही स्थगित हो गई, तथा पुनः इसका धारावाहिक प्रकाशन सन् १९१५ से १९२१ तक होता रहा। जिज्ञासू पाठकों की भावना को सम्मान देकर सम्पूर्ण ग्रन्थ का अनुवाद जैन धर्म प्रचारक सभा, भावनगर ने सं० १९८० से लेकर १९८२ तक की अवधि में तीन भागों में ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया। प्रस्तुत ग्रन्थ पर मोतीचन्द गिरधरलाल काप.
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